________________ उन्नीसवॉ शतक : उद्देशक 5] [781 और वेदना भी अधिक होती है / इसीलिए कहा गया है-परम की अपेक्षा चरम देव महाकर्मादि वाले होते हैं।' वेदना : दो प्रकार तथा उनका चौबीस दण्डकों में निरूपण 6. कतिविधा णं भंते ! वेयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पन्नत्ता, तं जहा-निदा य अनिदा य।। [6 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [6 उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है / यथा-निदा वेदना और अनिदा वेदना / 7. नेरइया गं भंते ! कि निवायं वेयणं वेएंति, अनिदायं ? जहा पन्नवणाए जाव वेमाणिय त्ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। / / एगूणवीसइमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो // 19.5 // [7 प्र.] भगवन् ! नैरयिक निदा वेदना वेदते हैं या अनिदा वेदना ? [7 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर) प्रज्ञापना-सूत्र के (पैतीसवें पद में उल्लिखित कथन) के अनुसार यावत्--वैमानिकों तक जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-नैरयिकादि में दो प्रकार की वेदना-प्रस्तुत दो सूत्रों में वेदना के दो प्रकार तथा नैयिकादि में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक उनकी प्ररूपणा की गई है / निदा और अनिदा वेदना—ये दोनों शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द हैं / निदा के मुख्य अर्थ यहाँ वत्तिकार ने किये हैं..-.(१) निदा-ज्ञान, सम्यगविवेक आभोग, उपयोग, तथा (2) निदा अर्थातजीव का नियत दान यानी शोधन (शुद्धि) / इन दोनों अर्थ वाली निदा से युक्त वेदना भी निदावेदना है / अर्थात् --सम्यगविवेकपूर्वक, ज्ञानपूर्वक या उपयोगपूर्वक (ग्राभोगपूर्वक) वेदी जाने वाली वेदना को निदा वेदना कहते हैं / यही वेदना निश्चित रूप से जीव की शुद्धि करने वाली है / इसके विपरीत अज्ञानपूर्वक अनाभोग—(अनजानपन में) वेदी जाने वाली वेदना को अनिदा वेदना कहते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 769 (ख) से नणं भंते ! चरमेहितो असरकूमारेहितो परमा असुरकूमारा अध्पकम्मतरा चेव अपकिरियतरा. चेवेत्यादि / अ. वृ. पत्र 769 2. (क) भगवती, अ, वृत्ति पत्र 769 (ख) भगवती. खण्ड 4 गुजराती अनुवाद) (पं. भगवानदास दोशी) पृ. 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org