________________ 750] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'कुलत्या शब्द का विश्लेषण–'कुलत्था' प्राकृतभाषा का शब्द है, संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं--(१) कुलस्था और (2) कुलत्था / इन्हें ही दूसरे शब्दों में स्त्रीकुलस्था और धान्यकुलत्था कहते हैं / स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की हैं, जो श्रमण के लिए अभक्ष्य हैं। धान्य कुलत्था कुलथी नामक धान को कहते हैं। वह अशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हो तो श्रमणों के लिए अकल्पनीय अग्राह्य (सदोष) होने से अभक्ष्य है। किन्तु यदि वह शस्त्रपरिणत, एषणीय (निर्दोष), याचित और लब्ध हो तो भक्ष्य है।' सोमिल द्वारा पूछे गए एक, दो, अक्षय, अव्यय, अवस्थित तथा अनेक भूत-भाव-भविक आदि तात्त्विक प्रश्नों का समाधान 27. [1] एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अन्वए भवं, अवट्टिए भवं, प्रणेगभूयमावभविए भवं? सोमिला! एगे वि अहं जाव अगभूयभावभविए वि अहं / 27.1 प्र.] भगवन् ! आप एक हैं, या दो हैं, अथवा अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं अथवा अनेक-भूत-भाव-भविक हैं ? [27-1 उ] सोमिल ! मैं एक भी हूँ, यावत् अनेक-भूत-भाव-भविक (भूत, और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य) भी हूँ। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव भविए विग्रहं ? ____सोमिला ! दवढयाए एगे अहं, नाण-दसणट्टयाए दुविहे अह, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं; उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं / से तेणढणं जाव भविए वि अहं। [27-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि मैं एक भी हूँ यावत् अनेक भूतभाव-भविक भी हूँ? [27-2 उ.] सोमिल ! मैं द्रव्यरूप से (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से) एक हूँ; ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो हूँ। आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, और अवस्थित (कालत्रय स्थायो—नित्य) हूँ; तथा (विविध विषयों के) उपयोग की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भावभविक (भूत, और भविष्य के विविध परिणामों के योग्य) भी हूँ। हे सोमिल ! इसी दृष्टि से (कहा था कि मैं एक भी हूँ,) यावत् अनेकभूत-भाव-भविक विवेचन–सोमिल के एक-अनेकादि-विषयक प्रश्न का भगवान द्वारा समाधान--इस सूत्र में छल, उपहास एवं अपमान आदि भाव छोड़ कर सोमिल द्वारा तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से प्रेरित हो कर पूछे गए प्रश्न का समाधान अंकित है। एक हैं या दो?--सोमिल के द्विविधाभरे प्रश्न के उत्तर 5. (क) भगवती अ. वृत्ति, पृ. 2764, (ख) भगवती. न. वृत्ति, पत्र 760 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org