________________ 762] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! उन पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [14 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है / 15. तेसि गं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा–वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए / [15 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गए हैं ? [15 उ.] गौतम ! उनके तीन समुद्घात कहे गए हैं। यथा--वेदना-समुद्धात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिक-समुद्धात / 16. ते णं भंते ! जीवा मारणतियसमुग्धाएणं कि समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / [16 प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव मारणान्तिक समुद्घात करके मरते हैं या मारणान्तिक समुद्घात किये बिना ही मरते हैं ? [16 उ.] गौतम ! वे मारणान्तिक समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। 17. ते गं भंते ! जीवा अणंतरं उध्वट्टिता कहिं गच्छंति ? कहि उवधज्जति ? एवं उन्वट्टणा जहा वक्तीए। [17 प्र.] भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव मरकर अन्तररहित कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [17 उ.] (गौतम ! ) यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार उनको उद्वर्तना कहनी चाहिए। विवेचन -बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिकों के विषय में प्ररूपणा–प्रस्तुत 17 सूत्रों (1 से 17 तक) में पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में बारह पहलुओं से प्ररूपणा की गई / वृत्तिकार ने प्रारम्भ में एक गाथा भी बारह द्वारों के नामनिर्देश की सूचित की है सिय-लेस-दिट्ठि-नाणे-जोगुवप्रोगे तहा किमाहारो। पाणाइवाय-उप्पाय-ठिई-समुग्धाय-उवट्टी। / अर्थात्-(१) स्याद्वार, (2) लेश्याद्वार, (3) दृष्टिद्वार, (4) ज्ञानद्वार, (5) योगद्वार, (6) उपयोगद्वार, (7) किमाहारद्वार, (8) प्राणातिपात-द्वार (9) उत्पादद्वार, (10) स्थितिद्वार, (11) समुद्घातद्वार और (12) उद्वर्तना द्वार / स्यारद्वार का स्पष्टीकरण- यहाँ स्याद्वार की अपेक्षा से प्रथम प्रश्न किया गया है कि क्या कदाचित् अनेक पृथ्वी कायिक मिल कर साधारण (एक) शरीर बाँधते हैं ? बाद में प्राहार करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org