________________ 764] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पूर्वोक्त बारह द्वारों के माध्यम से अप-तेजो वायु-वनस्पतिकायिकों में प्ररूपणा 18. सिय भंते ! जाप चत्तारि पंच पाउबकाइया एगयनो साहारणसरीरं बंधति, एग० बं० 2 ततो पच्छा पाहारेति ? एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियन्वो जाव उच्य ति, नवरं ठिती सत्तवाससहस्साई उक्कोसेणं, सेसं तं चेव / 618 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच अप्कायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं ? [18 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों के विषय में जैसा पालापक कहा गया है, वैसा ही यहां भी यावत उद्वर्त्तना-द्वार तक जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि अकायिक जीवों की स्थिति उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है / शेष सब पूर्ववत् / / 19. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउक्काइया० ? एवं चेव, नवरं उववानो ठिती उच्चट्टणा य जहा पन्नवणाए, सेसं तं चेव / [16 प्र.] भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच तेजस्कायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! इनके विषय में भी पूर्ववत् समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनका उत्पाद, स्थिति और उद्वर्तना प्रज्ञापना-सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। शेष सब बातें पूर्ववत् हैं / 20. वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणत्तं नवरं चत्तारि समुग्धाया। [20] वायुकायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात होते हैं / 21. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सतिकाइया० पुच्छा। गोयमा! जो इण? समढे / अणंता वणस्सतिकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंधति, एग बं० 2 ततो पच्छा आहारति वा परिणामेंति वा, आ० 502 सेसं जहा तेउक्काइयाणं जाव उव्वति / नवरं पाहारो नियमं छद्दिसि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं, सेसं तं चेव / [21 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच प्रादि वनस्पतिकायिक जीव एकत्र मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अनन्त वनस्पतिकायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं और परिणमाते हैं, इत्यादि सब अग्निकायिकों के समान यावत् उद्वर्तन करते हैं, तक (जानना चाहिए)। विशेष यह है कि उनका आहार नियमत: छह दिशा का होता है। उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org