________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] हैं ? तथा उसका परिणमन करते हैं ? और फिर शरीर का बन्ध करते हैं ? सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी संसारी जीव प्रतिसमय निरन्तर पाहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं, इसलिए प्रथम रबन्ध के समय भी प्राहार तो चालही है। तथापि पहले शरीर बांधने और पीछे आहार करने का जो प्रश्न किया गया है, वह विशेष आहार की अपेक्षा से किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। इसका अर्थ है-जीव उत्पत्ति के समय पहले प्रोज-पाहार करता है, फिर शरीर-स्पर्श द्वारा लोम-ग्राहार करता है / तदुपरान्त उसे परिण माता है और उसके बाद विशेष शरीरबन्ध करता है। उत्तर में पृथ्वीकायिक जीवों के साधारण शरीर बांधने का स्पष्ट निषेध किया गया है, क्योंकि वे प्रत्येकशरीरी ही हैं, इसलिए पृथक-पृथक शरीर बांधते हैं, आहार भी पृथक-पृथक करते हैं और पृथक ही परिण माते हैं। इसके बाद वे विशेष आहार, विशेष परिणमन और विशेष शरीरबन्ध करते हैं। किमाहारद्वार—पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में प्रज्ञापनासूत्र के अट्टाईसवें पद के प्रथम प्राहारोद्देशक का अतिदेश किया गया है / उसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-द्रव्य सेअनन्तप्रदेशी द्रव्यों का, क्षेत्र से असंख्यातप्रदेशों में रहे हुए, काल से जघन्य, मध्यम या उत्कृष्टकाल की स्थिति बाले और भाव से—वर्ण गन्ध, रम तथा स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्धों का आहार करते हैं। संज्ञादि का निषेध—पृथ्वीकायिक जीवों में संज्ञा अर्थात् व्यावहारिक अर्थ को ग्रहण करने वाली अवग्रहरूप बुद्धि, प्रज्ञा अर्थात् सूक्ष्म अर्थ को विषय करने वाली बुद्धि, मन (मनोद्रव्यस्वभाव) तथा वाक----(द्रव्यश्रुतरूप) नहीं होती। यही कारण है कि वे इस भेद को नहीं जानते कि हम वध्य (मारे जाने वाले) हैं और ये वधिक (मारने वाले) हैं। परन्तु उनमें प्राणातिपात क्रिया अवश्य होती है। क्योंकि प्राणातिपात से वे विरत नहीं हुए। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि जीवों में वचन का अभाव होने पर भी मृषावाद आदि की अविरति के कारण वे मृषावाद आदि में रहे हुए हैं। उत्पादद्वार में विशेष ज्ञातव्य-यह है कि पृथ्वीकाधिकादि नरयिकों से पाकर उत्पन्न नहीं होते, वे तिर्यञ्च, मनुष्य या देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं। उद्वर्तन भी इसी प्रकार समझना चाहिए।' कठिनशब्दार्थ-चिज्जंति--चय करते हैं। चिण्णे वा से उद्दाइ–चीर्ण यानी आहारित वह पुद्गलसमूह मलवत् नष्ट, (अपद्रव) हो जाता है। इसका सारभाग शरीर, इन्द्रियरूप में परिणत होता है। पलिसम्पति बाहर निकल जाता है, बिखर जाता है। सव्वप्पणयाए सभी प्रात्मप्रदेशों से 1 सण्णा इ-संज्ञा, पण्णा इ-प्रज्ञा / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 763-764 (ख) भगवती. भा.६, विवचन (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2774-2778 (ग) भगवतीसून खण्ड 4 (गुजराती अनुवाद) पं. भगवानदास दोशी, पृ. 22 (घ) प्रज्ञापना (पण्णवणासुत) भा. 1, सू. 650, 669, पृ. 174-76, 180 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org