________________ 714] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कहते हैं। दुष्प्रणिधान तो चौबीस हो दण्डकों में पाया जाता है, किन्तु सुप्रणिधान केवल मनुष्य (संयत-साधु) में ही पाया जाता है।' अन्यतीथिकों द्वारा भगवत्प्ररूपित अस्तिकाय के विषय में पारस्परिक जिज्ञासा 23. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरह। [23] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने यावत् बाह्य जनपदों में विहार किया। 24. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था / वण्णतो / गुणसिलए चेतिए / वण्णओ, जाव पुढविसिलावट्टओ। [24] उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्ट था। 25. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहाकालोदाई सेलोदाई एवं जहा सत्तमसते अन्नउस्थिउद्देसए (स 7 उ० 10 सु० 1--3) जाब से कहमेयं मन्ने एवं? [25] उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक रहते थे। यथा-कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक के (उ. 10 सू. 1-3 में कथित) वर्णन के अनुसार, यावत्-'यह कैसे माना जा सकता है ?' यहाँ तक समझना चाहिए। विवेचन–अन्यतीथिकों की भगवत्प्ररूपित अस्तिकाविषयक-जिज्ञासा--राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान के निकट कालोदायी, शैलोदायी शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सेहस्ती नामक अन्यतीथिक रहते थे / एक दिन वे सब एकत्र होकर धर्मचर्चा कर रहे थे कि प्रसंगवश भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित अस्तिकाय को चर्चा छिड़ गई। वह इस प्रकार-ज्ञातपुत्र महावीर पंचास्तिकाय को प्ररूपणा करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय प्रादि / इनमें से जीवास्तिकाय सचेतन है, शेष चार अचेतन हैं। इनमें से पुद्गला स्तिकाय रूपी है, शेष चार अरूपी हैं / ज्ञातपुत्र महावीर के इस मत को कैसे यथार्थ माना जा सकता है ? क्योंकि ये अदृश्य होने के कारण असम्भव हैं। आशय यह है कि इस पंचास्तिकाय को सचेतनाचेतनरूप या रूपी-अरूपी. पादिरूप कैसे माना जा सकता है ? 2 राजगृह में भगवत्पदार्पण सुनकर मद्र कश्रावक का उनके दर्शन वन्दनार्थ प्रस्थान 26. तत्थ णं रायगिहे नगरे मह ए नाम समणोवासए परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ। [26] उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से पराभूत न होने वाला, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, यावत् मद्रक नामक श्रमणोपासक रहता था / 1. भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भाग. 6, पृ. 2720 2. (क) भगवतो. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2726; (ख) भगवती, अ. वृ., पत्र 753 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org