________________ 720] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाने (ग्रहण किये), और खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को बन्दन-नमस्कार किया यावत् अपने घर लौट गया। विवेचन--भगवान द्वारा मद्रक की प्रशंसा एवं नवसिद्धान्त निरूपण--भगवान् ने मद्रक द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए युक्तिसंगत उत्तर के लिए मद्रक की प्रशंसा की, उसके प्रशंसनीय और धर्मप्रभावक कार्य को प्रोत्साहन दिया, साथ ही एक अभिनव सिद्धान्त का भी प्रतिपादन कर दिया कि जो व्यक्ति बिना जाने-सुने-देखे ही किसी अविज्ञात-अश्रुत-असम्मत अर्थ, हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुजन समूह में देता है, वह अर्हन्तों, केवलियों तथा अर्हत्प्ररूपित धर्म की पाशातना करता है / इसका आशय यह है कि बिना जाने सुने मनमाना उत्तर दे देने से कई बार धर्म संघ एवं संघनायक के प्रति लोगों की गलत धारणाएँ हो जाती हैं / वृत्तिकार इस कथन का रहस्य इस प्रकार बताते हैं कि भगवान ने कहा--हे मद्र क ! तुमने अच्छा किया कि अस्तिकाय को प्रत्यक्ष न जानते हुए, 'नहीं जानते', ऐसा सत्य-सत्य कहा / यदि तुमने नहीं जानते हुए भी, 'हम जानते हैं', ऐसा कहा होता तो अहन्त आदि के तुम पाशातनाकर्ता हो जाते।' कठिन शब्दार्थ--अण्णात-अज्ञात / अदिट्ट नहीं देखे हुए। अस्सुतं-नहीं सुने हुए। अमय-असम्मत–अमान्य / अविण्णायं-अविज्ञात / पासायणाए वट्टति--पाशातना करने में प्रवृत्त होता है. आशातना करता है / अढाई परियाइयति-अर्थों को ग्रहण करता है। गौतम द्वारा पूछे गए मद्रुक की प्रव्रज्या एवं मुक्ति से सम्बद्ध प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान 37. 'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासिपभू णं भंते ! मदुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव पव्वइत्तए ? णो तिणठे समठे / एवं अहेव संखे (स० 12 उ० 1 सु० 31) तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिति / [37] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित कर, भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! क्या मद्रक श्रमणोपासक अाप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ है ? / [37 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / इत्यादि सब वर्णन (शतक 12, उ. 1 सू. 31 में वर्णित) शंख श्रमणोपासक के समान समझना चाहिए / यावत्-अरूणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न होकर ; यावत सर्वदुःखों का अन्त करेगा। विवेचन - गौतम स्वामी द्वारा मद्रक को प्रवज्या एवं मुक्ति आदि से सम्बद्ध प्रश्न का 1. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2726 (ख) भगवती, अ. वत्ति, पत्र 753 2. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) मा. 13, पृ. 127-131 3. पाठान्तर----महेसक्खे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org