________________ 730] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत्, ऊर्ध्वजानु (दोनों घुटने ऊँचे करके) यावत् तप-संयम से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते थे। 8. तए गं ते अन्नउस्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 भगवं गोयमं एवं क्यासि-तुम्भे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला पावि भवह / [8] एक दिन वे अन्यतीर्थिक, श्री गौतम स्वामी के पास आकर कहने लगे-पार्यो ! तुम त्रिविध-त्रिविध से (तीन करण और तीन योग से) असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। 9. तए गं भगवं गोयमे ते अन्नउस्थिए एवं क्यासि-केणं कारेणेणं प्रज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवामो ? .] इस पर भगवान गौतम स्वामी ने उन (प्राक्षेपकर्ता) अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! किस कारण से हम तीन करण-तीन योग से असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हैं ? 10. तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं एवं वदासी-तुम्भे गं अज्जो ! रोवं रीयमाणा पाणे पेच्चेह अभिहणह जाव उबद्दवेह / तए णं तुम्भे पाणे पेम्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यानि भवह। [10 उ.7 तब वे अन्यतीथिक, भगवान गौतम से इस प्रकार कहने लगे हे आर्य ! तुम गमन करते हुए जीवों को आक्रान्त करते (दबाते) हो, मार देते हो, यावत्-उपद्रवित (भयाक्रान्त) कर देते हो। इसलिए प्राणियों को अाक्रान्त यावत् उपद्रत करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हो / 11. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वदासि-नो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमो जाव उववेमो, अम्हे णं प्रज्जो रोयं रीयमाणा कायं च जोयं च रोयं च पडुच्च दिस्स दिस्स पदिस्स पदिस्स क्यामो। तए णं अम्हे दिस्स दिस्स वयमाणा पदिस्स पदिस्स क्यमाणा णो पाणे पेच्चेमो जाव णो उवहवेमो। तए णं अम्हे पाणे प्रपच्चेमाणा जाव अमोहवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि मधामो / तुम्भे गं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह। [11 उ.] (गौतम स्वामी.) यह सुन कर भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! हम गमन करते हुए न तो प्राणियों को कुचलते हैं, न मारते हैं और न भयाक्रान्त करते हैं, क्योंकि आर्यो! हम गमन करते समय काया (शरीर की शक्ति को), योग को (संयम व्यापार को) और धीमी-धीमी गति को ध्यान में रख कर देख-भाल कर विशेष रूप से निरीक्षण करके चलते / अत: हम देख-देख कर एवं विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए चलते हैं, इसलिए हम प्राणियों को न तो दबाते-कुचलते हैं, यावत् न उपद्रवित करते (पीड़ा पहुँचाते) हैं। इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त न करते हुए, यावत् पीड़ित न करते हुए हम तीन करण और तीन योग से यावत् एकान्त पण्डित हैं / हे प्रायों ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत एकान्त बाल हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org