________________ 742] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. प्रणंतपएसिए पं भंते ! खंधे वाउ० पुच्छा। . गोयमा! अर्णतपएसिए खंधे वाउयाएणं फुडे, वाउयाए अणंतपएसिएणं खंधेणं सिय फुडे, सिय नो फुडे / [7 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से स्पष्ट है? [7 उ.] गौतग ! अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है तथा वायुकाय अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। 8. बत्थी णं भंते ! बाउयाएणं फुडे, वाउयाए बस्थिणा फुडें ? गोयमा ! बत्थी वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए बस्थिणा फुडे / [8 प्र.] भगवन् ! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट है ? [= उ.] गौतम ! वस्ति वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय, वस्ति से स्पृष्ट नहीं है। विवेचन परमाणु पुदगल, द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध एवं वस्ति वायुकाय से तथा वायुकाय की इनसे स्पृष्टास्पृष्ट होने को प्ररूपणा--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 4 से 8 तक) में परमाणु आदि का वायु से तथा वायु का परमाणु प्रादि से स्पृष्ट (व्याप्त)- अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है। वायु परमाणु-पुद्गल से स्पृष्ट-व्याप्त नहीं है, क्योंकि वायु महान् (बड़ी) है, और परमाणु प्रदेशहित होने से अतिसूक्ष्म है, इसलिए वायु उसमें व्याप्त (बीच में क्षिप्त) नहीं हो सकती, वह उसमें समा नहीं सकती। यही बात द्विप्रदेशी से असंख्य प्रदेशो स्कन्ध के विषय में समझ लेनी चाहिए। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है, क्योंकि वह वायु की अपेक्षा सूक्ष्म है / जब वायुस्कन्ध की अपेक्षा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध महान् होता है, तब वायु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से व्याप्त होती है, अन्यथा नहीं। इसलिए मूलपाठ में कहा गया है कि अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है, और वायु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् च्याप्त होती है, कदाचित् नहीं। मशक, वायु से व्याप्त है, वायु मशक से व्याप्त नहीं-मशक में जब हवा भरी जाती है, तब मशक वायु से व्याप्त होती है, क्योंकि वह समग्ररूप से उसके भीतर समाई हुई है। किन्तु वायु काय, मशक से व्याप्त नहीं है / वह वायुकाय के ऊपर चारों ओर परिवेष्टित है। कठिन शब्दार्थ-- फुडे--स्पृष्ट--व्याप्त या मध्य में क्षिप्त / बत्थी—वस्ति---मशक / ' सात नरक, बारह देवलोक, पांच अनुत्तरविमान तथा ईषत्-प्रारभारा पृथ्वी के नोचे परस्पर बद्धादि पुद्गल द्रव्यों का निरूपण 9. अस्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दव्वाई वण्णओ काल-नील-लोहिय 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 757 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6, (पं. घेवरचंदजी) पृ. 2751-2753 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org