________________ 746] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (मेरी) पांचों इन्द्रियाँ निरुपहत (उपघातरहित) और * वश में (रहती) हैं, यह मेरा इन्द्रिययापनीय है। 21. से कि तं नोइंदियजवणिज्जे ? नोइंदियजवणिज्जे-जं मे कोह-माण-माया-लोमा वोच्छिन्ना, नो उदीरेंति, से तं नोइंदियजधणिज्जे / से तं जवणिज्जे / [21 प्र.] भंते ! वह नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ? [21 उ.] सोमिल ! जो मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय व्युच्छिन्न (नष्ट) हो गए हैं; और उदयप्राप्त नहीं हैं, यह मेरा नोइन्द्रियन्यापनीय है / इस प्रकार मेरे ये यापनीय हैं। 22. कि ते भंते ! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं में वातिय-पित्तिय-सेभिय-सन्निवातिया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता, नो उदीरेंति, से तं अव्वाबाहं / [22 प्र.] भगवन् ! आपके अव्याबाध क्या है ? [22 उ.] सोमिल ! मेरे वातज, पित्तज, कफन और सन्निपातजन्य तथा अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी रोग, अातंक एवं शरीरगत दोष उपशान्त हो गए हैं, वे उदय में नहीं पाते / यही मेरा अव्याबाध है। 23. किं ते भंते ! फासुयविहारं ? सोमिला ! जणं पारामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु समासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिज्ज पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, से तं फासुविहारं / [23 प्र.] भगवन् ! आपके प्रासुकविहार कौन-सा है ? [23 उ.] सोमिल ! पाराम, (बगीचे), उद्यान (बाग), देवकुल (देवालय), सभा और प्रपा (प्याऊ) आदि स्थानों में स्त्री-पशु-नपुंसकर्जित वसतियों (प्रावासस्थानों) में प्रासुक, एषणीय पीठ (पीढा-बाजोट), फलक (तख्ता), शय्या, संस्तारक आदि स्वीकार (ग्रहण) करके मैं विचरता हूँ, यही मेरा प्रासुकविहार है। विवेचन--सोमिल बाह्मण (माहन) के द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के भगवान द्वारा उत्तर–सोमिल ब्राह्मण परीक्षाप्रधान बनकर भगवान् के समीप पहुंचा था। वह यह संकल्प लेकर चला था कि अगर श्रमण ज्ञातपुत्र ने मेरे प्रश्नों के यथार्थ उत्तर दिये तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार एवं पर्युपासना करूंगा, अन्यथा नहीं | उसका अनुमान था कि मैं जिन गम्भीर अर्थ वाले शब्दों के अर्थ पूछंगा, श्रमण ज्ञातपुत्र को उनके अर्थों का ज्ञान नहीं होगा। इसलिए उसने भगवान की योग्यता की परीक्षा करने हेतु यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार के सम्बन्ध में प्रश्न किये थे, जिनके समीचीन उत्तर भगवान् ने दिये / ' 1. भगवती. विवेचन (पं घेवरचन्दजो) भा. 6, पृ. 2759 - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org