________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [733 19. छउमस्थे णं भते ! मणूसे अणंतपएसियं खधं कि० पुच्छा? गोयमा ! प्रत्थेगतिए जाणति पासति; अत्थेगतिए जाणति, न पासति ; प्रत्थेगतिए न जाणति, पासति ; अत्थेगतिए न जाणति न पासति / [16 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानता देखता है ? इत्यादि प्रश्न ? [16 उ.] गौतम ! 1. कोई जानता है, और देखता है, 2. कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं ; 3. कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है, और 4. कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। विवेचन--परमाण एवं द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध को जानने-देखने को छद्मस्थ को शक्तिछदास्थ शब्द से यहाँ निरतिशय ज्ञानी (जो अतिशय ज्ञानधारी नहीं है, ऐसा) विवक्षित है / ऐसे छद्मस्थ मनुष्य को परमाणु प्रादि सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान एवं दर्शन होते हैं या नहीं होते ? यह प्रश्न का प्राशय है। इसके उत्तर का प्राशय यह है कि कई छद्मस्थ मनुष्यों को सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान तो होता है, किन्तु दर्शन नहीं होता। क्योंकि 'श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुतदर्शनाभावात्'–श्रुतज्ञानी जिन सूक्ष्मादि पदार्थों को श्रुत के बल से जानता है, उन पदार्थों का दर्शन यानी प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभव उसे नहीं होता / इसीलिए यहाँ कहा गया है कि कितने ही छद्मस्थ मनुष्य परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान तो शास्त्र के आधार से कर लेते हैं, परन्तु उनके साक्षात् दर्शन से रहित होते हैं। श्रतोपयक्तातिरिक्तस्त न जानाति, न पश्यति' इस नियम के अनसार जो छदा श्रत ज्ञानी मनुष्य श्रुतोपयोग से रहित होते हैं, वे सूक्ष्मादि पदार्थों को न तो जान पाते हैं, और न ही देख पाते हैं। इसी प्रकार द्विप्रदेशो स्कन्ध (द्वयणुक अवयव) से लेकर असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध (तीन, चार, पांच, छह, सात और पाठ, नौ, दश और संख्यात-प्रदेशी एवं असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध) तक के विषय में भी समझना चाहिए।' अनन्त प्रदेशो स्कन्ध को जानने-देखने के विषय में चौभंगी-इस विषय में चार भंग बताए गए हैं / यथा--(१) कोई छद्मस्थ मनुष्य स्पर्श आदि से उसे जानता है और चक्षु से देखता है / (2) कोई छमस्थ स्पादि द्वारा उसे जानता तो है, परन्तु नेत्र के अभाव में उसे देख नहीं पाता / (3) कोई छमस्थ मनुष्य स्पर्शादि का अविषय होने से उसे नहीं जान पाता, किन्तु चक्षु से उसे देखता है / यह तृतीय भग है : जैसे दूरस्थ पर्वत आदि को कोई छद्मस्थ मनुष्य चक्षु के द्वारा देखता है, पर स्पर्शादि द्वारा उसे जानता नहीं। (4) तथा इन्द्रियों का अविषय होने से कोई छद्मस्थ मनुष्य न तो जान पाता है, और न ही देख पाता है, जैसे अन्धा मनुष्य / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 755 (ख) भगवती. (प्रमेय चन्द्रिका टोका) भा. 12, पृ. 181 2. (क) वहीं, भाग. 12, पृ. 182 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 756 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org