________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [687 20. जहा नाणावरणिज्जेणं दंडनो भणिओ एवं जाव अंतराइएणं भाणियच्चो / [20] जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म-सम्बन्धी दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार अन्तरायकर्म तक (दण्डक) कहना चाहिए / विवेचन-द्रव्यबन्ध, भावबन्ध और उसके भेद-प्रभेद ---- प्रस्तुत 11 सूत्रों (स. 10 से 20 तक) में बन्ध के दो भेद---द्रव्य और भावबन्ध करके उनके भेद-प्रभेद तथा भावबन्धनित प्रकारों का निरूपण किया ग द्रव्यवन्ध : यहाँ कौन-सा ग्राह्य है ? –द्रव्यबन्ध आगम, नोप्रागम आदि के भेद से अनेक प्रकार का है ; किन्तु यहाँ केवल 'उभय-व्यतिरिक्त द्रव्यबन्ध का ग्रहण करना चाहिए / तेल आदि स्निग्ध पदार्थों या रस्सी आदि द्रव्य का परस्पर बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। भावबन्ध : स्वरूप, प्रकार और ग्राह्यभावबन्ध-भाव अर्थात मिथ्यात्व आदि भावों के द्वारा अथवा उपयोग भाव से अतिरिक्त भाव का, जीव के साथ बन्ध होना, भावबन्ध कहलाता है। भावबन्ध के पागमतः और नो-पागमतः, ये दो भेद हैं। यहाँ नो-पागमतः भावबन्ध का ग्रहण विवक्षित है। प्रयोगबन्ध, विस्त्रसाबन्ध : स्वरूप और प्रकार-जीव के प्रयोग से द्रव्यों का बन्ध होना प्रयोगबन्ध है और स्वाभाविक रूप से बन्ध होना विस्रसाबन्ध है। विस्रसाबन्ध के दो भेद हैसादिविस्त्रसाबन्ध और अनादि-विस्रसाबन्ध / बादलों आदि का परस्पर बन्ध होना (मिल जाना— जुड़े जाना) सादिविखसाबन्ध है और धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर बन्ध, अनादि-विस्रसाबन्ध कहलाता है / प्रयोगबन्ध के दो भेद हैं-शिथिलबन्ध और गाढबन्ध / घास के पूले आदि का बन्ध शिथिलबन्ध है और रथचक्रादि का बन्ध गाढबन्ध है। भावबन्ध के भेद-भावबन्ध के दो भेद हैं -मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध / मूलप्रकृतिबन्ध के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय ग्रादि 8 भेद हैं, तथा उत्तरप्रकृतिबन्ध के कुल 148 भेद हैं। उनमें से 120 प्रकृतियों का बन्ध होता है / जिस दण्डक में जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता हो, वह कहना चाहिए / यही भेद नैरयिकों के मूल-उत्तरप्रकृतिबन्ध के समझने चाहिए।' जीव एवं चौबीस दण्डकों द्वारा किये गए, किये जा रहे तथा किये जाने वाले पापकर्मों के नानात्व (विभिन्नत्व) का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण 21. [1] जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे जाव जे य कज्जिस्सइ अस्थि याई तस्स के यि गाणते ? हंता, अस्थि। [21-1 प्र.] भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा क्या उनमें परस्पर कुछ भेद (नानात्व) है ? 1. (क) भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 743 (ख) भगवती उपक्रम (पं. मुनि श्री जनकरायजी तथा जगदीशमुनिजी म.) पृ. 375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org