________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [689 स्पष्टीकरण-जैसे किसी पुरुष द्वारा धनुष और बाण के अलग-अलग समय में ग्रहण करने, फिर अमुक स्थिति में खड़े रह कर बाण को कान तक खींचने और तत्पश्चात् उसे ऊपर फेंकने के विभिन्न कम्पनों में, उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, इसी प्रकार जीव द्वारा किये हुए भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के कर्मों में भी तीव्रमन्दादि परिणामों के भेद से तदनुरूप कार्य-कारित्व रूप नानात्व-विभिन्नता समझ लेना चाहिए।' कठिन शब्दार्थ-धणु-धनुष / उसु वाण / परामुसई-ग्रहण करता है। ठाणं ठाइअमुक स्थिति (आकृति) में खड़ा होता है। उड्ढे वेहासं-ऊपर आकाश में / उम्विहइ-फेंकता है। णाणतं-नानात्व-विभिन्नत्व, भेद / एयति - कम्पन होता है / चौवीस दण्डकों द्वारा प्राहार रूप में गृहीत पुद्गलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाण-निरूपण 24, नेरतिया णं भंते ! जे पोग्गले पाहारत्ताए गेहंति तेसि गंभंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिभागं प्राहारेंति, कतिभागं निज्जरेंति ? मागंदियपुत्ता ! असंखेज्जइभागं पाहाति, अणंतभागं निज्जरेंति / [24 प्र.] भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को ग्राहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकाल में प्राहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता (-त्यागा जाता) है ? [24 उ.] माकन्दिकपुत्र ! (उनके द्वारा आहार रूप से गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण होता है और अनन्त भाग का निर्जरण होता है। 25. चक्किया णं भंते ! केयि तेसु निज्जरापोग्गलेमु प्रासइत्तए वा जाय तुट्टित्तए वा ? नो इण8 सम8, प्रणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो ! . [25 प्र.] भगवन् ! क्या कोई जीव (उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोने (करवट बदलने) में समर्थ है ? [25 उ.] माकन्दिकपुत्र ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / आयुष्मन् श्रमण ! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं (अर्थात् -- ये कुछ भी धारण करने में असमर्थ हैं।) 26. एवं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / अट्ठारसमे सए : तइप्रो उद्देसओ समतो // 18-3 // 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 743 2. (क) वही, पत्र 743 (ख) भगवती, (विवेचन) (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6. पृ. 2689 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org