________________ सत्तमो उद्देसओ : 'केवली' सप्तम उद्देशक : 'केवली' केवली के यक्षाविष्ट होने तथा दो सावध भाषाएँ बोलने के अन्यतीथिक प्राक्षेप का भगवान द्वारा निराकरणपूर्वक यथार्थ समाधान 1. रायगिहे जाव एवं वयासी -- [1] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 2. अन्नउस्थिया णं भंते ! एबमाइक्खंति जाव परुति--एवं खलु केवली जक्खाएसेणं प्राइस्सति, एवं खलु केवली जवखाएसेणं प्राइ8 समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-- मोसं वा सच्चामोसं वा / से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! नं णं ते अन्नउत्थिया जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ४–नो खलु केवली जक्खाएसेणं आइस्सति, नो खलु केवलो जक्खाएलेणं आइट्ठ समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-मोसं वा सच्चामोसं वा / केवली जं असावज्जाओ अपरोवघातियाओ आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा—सच्चं वा प्रसच्चामोसं वा। [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतोथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि केवली यक्षावेश से आविष्ट होते हैं और जब केवली यक्षावेश से पाविष्ट होते हैं तो वे कदाचित् (कभीकभी) दो प्रकार की भाषाएँ बोलते हैं-(१) मृषाभाषा और (2) सत्या-मृषा (मिश्र) भाषा / तो हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? 2 उ.] गौतम ! अन्यतीथिकों ने यावत् जो इस प्रकार कहा है, वह उन्होंने मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि केवली यक्षावेश से आविष्ट ही नहीं होते। केवली न तो कदापि यक्षाविष्ट होते हैं, और न ही कभी मृषा और सत्या-मृषा इन दो भाषाओं को बोलते हैं। केवली जब भो बोलते हैं, तो असावद्य और दूसरों का उपघात न करने वाली, ऐसी दो भाषाएँ बोलते हैं / वे इस प्रकार हैं-सत्यभाषा या असत्याभूषा (व्यवहार) भाषा। विवेचन केवली यक्षाविष्ट नहीं होते न सावद्यभाषाएँ बोलते हैं केवली अनन्त-वीर्य-सम्पन्न होने से किसी भी देव के ग्रावेश से आविष्ट नहीं होते। और जब वे कदापि यक्षाविष्ट नहीं होते, तब उनके द्वारा मषा और सत्यामृषा इन दो प्रकार को सावधभाषाएँ बोलने का सवाल ही नहीं उठता / फिर केवली तो राग-द्वेष-मोह से सर्वथा रहित, सदैव अप्रमत्त होते हैं, वे सावद्यभाषा बोल ही नहीं सकते।' 1. (क) भगवती. अ. बृति, पत्र 749 / (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्र (गुजराती अनुवाद), (पं. भगवानदास दोशी) खण्ड 4, पृ. 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org