________________ 700] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसेत्र चौबीस दण्डकों में स्वदण्डकवर्ती दो जीवों में महाकर्मत्व-प्रत्पकर्मत्वादि के कारणों का निरूपण 5. दो भंते ! नेरइया एगंसि नेरतियावासंसि नेरतियत्ताए उववन्ना / तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव जाब महावेदणतराए चेष, एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अपवेदणतराए चेव, से कहमेयं भंते ! एवं ? | गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—मायिमिच्छद्दिदिउववनगा य, प्रमायिसम्मद्दिदिउववनगा य / तस्थ णं जे से माथिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नए नेरतिए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव, तत्थ गंजे से प्रमायिसम्महिटिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाब अपवेदणतराए चेव / 65 प्र.] भगवन् ! दो नैरयिक एक ही नरकाबास में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुए। उनमें से एक नैरयिक महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला और एक नैरयिक अल्पकर्मवाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है, तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? [5 उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक और अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / इनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नरयिक है वह महाकर्म बाला यावत् महावेदना बाला है, और उनमें जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है / 6. दो भंते ! असुरकुमारा० ? एवं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! दो असुरकुमारों के महाकर्म-अल्पकर्मादि विषयक प्रश्न ? [6 उ.] हे गौतम ! यहां भी उसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना चाहिए। 7. एवं एगिदिय-विलिदियवज्जा जाब वेमाणिया। [7] इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए। विवेचन--नैरयिक से वैमानिक तक महाकर्मादि एवं अल्पकर्मादि का कारण–महाकर्म प्रादि चार पद हैं / यथा---महाकर्म, महाक्रिया, महा-ग्राश्रव और महावेदना / इन चारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है / महाकर्मता आदि का कारण मायी मिथ्यादृष्टित्व है, और अल्पकर्मता आदि का कारण अमायीसम्यग्दृष्टित्व है / एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में इस प्रकार का अन्तर नहीं होता, क्योंकि उनमें एकमात्र मायी मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अमायीसम्यग्दष्टि नहीं / इसलिए उनमें केवल महाकर्म प्रादि वाले ही हैं, अल्पकर्मादि वाले नहीं / इसीलिए यहां एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर सभी दण्डकों में दो-दो प्रकार के जीव बताए हैं।' 1. भगवती, विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) प. 2703 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org