________________ 702] व्याख्याप्रजप्तिसूत्र प्रस्तुत किया गया है कि जो जीव जब तक जिस प्रायु सम्बन्धी शरीर को धारण करके रहा हुमा है, वह तब तक उसी के प्रायुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मर कर जहां उत्पन्न होने के योग्य है उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है। तथा उस शरीर को छोड़ देने के बाद ही बह जहां उत्पन्न होता है, वहां के आयुष्य का वेदन करता है / जैसे एक नैरयिक जब तक नैरपिक का शरीर धारण किये हुए है, तब तक वह नरक के आयुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मरकर यदि अन्तर रहित पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो उसके प्रायुष्य को उदयाभिमुख कर रहता है, किन्तु नैरयिक शरीर को छोड़ देने के बाद जब वह तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होता है तो वहां के अायुष्य का वेदन करता है / ' चतुविध देवनिकायों में देवों को स्वेच्छानुसार विकुर्वणाकरण-अकरण-सामर्थ्य के कारणों का निरूपण 12. दो भंते ! असुरकुमारा एगसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवताए उववना। तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुयं विउव्यिस्सामी ति उज्जुयं विउव्वइ, 'वकं विउव्विस्सामो' ति वंक विउव्वइ, जं जहा इच्छति तं तहा विउव्वइ / एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुनं विउविस्तामो' ति वंकं विउठवति, 'वक विउविस्सामो' ति उन्जुयं विउव्यति, जं जहा इच्छति णो तं तहा विउव्वति / से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-मायिमिच्छद्दिविउववनगा य अमायिसम्महि द्विउववनगा य / तत्थ णं जे से मायिमिच्छद्दिहिउवयनए असुरकुमारे देवे से गं 'उज्जुयं विउव्विस्सामो' ति वंक विउव्वति जाव णो तं तहा बिउब्वइ, तत्थ णं जे से प्रमायिसम्मद्दिष्टिउववत्रए असुरकुमारे देवे से 'उज्जुयं विउविस्सामो' ति उज्जुयं विउब्बति जाव तं तहा विउन्वइत्ति। [12 प्र.] भगवन् ! दो असुरकुमार, एक हो असुरकुमारावास में असुरकुमार रूप से उत्पन्न हुए, उनमें से एक असुरकुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु (सरल) रूप से विकुर्वणा करूगा तो वह ऋजु-विकुर्वणा कर सकता है और यदि वह चाहे कि मैं वक्र (टेढे) रूप में विकुर्वगा करूगा, तो वह वक्र-विकुर्वणा कर सकता है। अर्थात् वह जिस रूप को, जिम प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उसी रूप की, उसी प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है, जब कि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि मैं ऋजु-विकुर्वणा करू, परन्तु वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और वक्ररूप को विकुर्वणा करना चाहता है, तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है / अर्थात् वह जिस रूप को, जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, वह उस रूप को उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता; तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? [12 उ.] गौतम ! असूरकुमार देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-मायि-मिथ्यादष्टिउपपन्नक और अमायि-सम्यग्दष्टि-उपपन्नक / इनमें से जो मायो-मिथ्यादृष्टि-उपरन्त्रक असुरकुमार देव हैं, वह ऋजुरूप की बिकुर्वणा करना चाहे तो वक्ररूप को विकुर्वणा हो जाती है, यावत् जिस रूप 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2705 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org