________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 5] की, जिस प्रकार से विकर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता किन्तु जो प्रमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक असुरकुमारदेव है, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो ऋजुरूप को विकुर्वणा कर सकता है, यावत् जिस रूप की जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है / 13. दो भंते ! नागकुमारा० ? एवं चेव / [13 प्र. भगवन् ! दो नागकुमारों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है ? 113 उ.] गौतम ! उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए। 14. एवं जाव थणियकुमारा। [14] इसी प्रकार यावत् स्तनकुमारों तक के विषय में (जानना चाहिए।) 15. वाणमंतरा-जोतितिय-वेमाणिया एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // प्रहारसमे सए : पंचम उद्देसओ समत्तो // 18-5 / / [15] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गोतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--स्वेच्छानुसार या स्वेच्छाविपरीत विकुर्वणा करने का कारण-भवनपति, काणन्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवों में से कितने ही देव स्वेच्छानुकूल सीधो या टेढ़ी विकुर्वणा (विक्रिया) कर सकते हैं, इसका कारण यह है कि उन्होंने ऋजुतायुक्त सम्यग्दर्शन निमित्तक तीव्र रस वाले वैक्रिय नामकर्म का बन्ध किया है और जो देव अपनी इच्छानुकल सीधी या टेढ़ी विकुर्वणा नहीं कर सकते, उसका कारण यह है कि उन्होंने माया-मिथ्यादर्शननिमित्तक मन्द रस वाले वैकियनामकर्म का बन्ध किया है। इसलिए प्रस्तुत चार सूत्रों (12 से 15 तक) में यह सिद्धान्त प्ररूपित किया गया है कि अमायी सम्यग्दृष्टिदेव स्वेच्छानुसार रूपों की विकर्षणा कर सकते हैं जब कि मायी-मिथ्यादृष्टिदेव स्वेच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा' नहीं कर सकते। / / अठारहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 747, (ख) भगवती. विवेचना भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2707 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org