________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [685 तथा जो विशिष्ट अवधिज्ञानी उपयोगयुक्त हैं, वे ही उन सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख सकते हैं / जो मायी-मिथ्यादृष्टि हैं, वे विपरीतद्रष्टा होने से उन पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। आहाररूप से ग्रहण-आहार तीन प्रकार के हैं-ओज आहार, लोम प्राहार और प्रक्षेप पाहार / त्वचा के स्पर्श से लोम आहार होता है, और मुख में डालने से प्रक्षेप-ग्राहार होता है, किन्तु कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करना प्रोज-आहार कहलाता है। यहाँ प्रोज-पाहार का ग्रहण समझना चाहिए, जिसे चौबीस दण्डकवर्ती जीव ग्रहण करते हैं।' आणत्तं णाणत्तं : आशय-प्राणत्तं-अन्यत्व-दो अनगारों सम्बन्धी पुद्गलों की पारस्परिक भिन्नता-पृथक्ता / णाणत्तं-नानात्व-वर्णादिकृत विविधता / बन्ध के मुख्य दो भेदों के भेद-प्रभेदों का तथा चौवीस दण्डकों एवं ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्म की अपेक्षा भावबन्ध के प्रकार का निरूपण 10. कतिविधे णं भंते बंधे पन्नत्ते ? मागंबियपुत्ता! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा--दव्यबंधे य भावबंधे य / [10 प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] माकन्दिकपुत्र ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार है-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध / 11. दव्वबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नते? मागंदियपुत्ता ! दुविधे पश्नत्ते, तं जहा–पयोगबंधे य वीससाबंधे य / [11 प्र.] भगवन् ! द्रव्यबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? / [11 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा प्रयोगबन्ध और वित्रसाबन्ध। 12. वोससाबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविधे पन्नत्ते, तं जहासादीयवोससाबंधे य अणादीयवीससाबंधे य / [12 प्र.] भगवन् ! विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [11 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह भी दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सादि विस्रसाबन्ध और अनादि विस्त्रसाबन्ध / 13. पयोगबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुबिहे पन्नत्ते तं जहासिढिलबंधणबंधे य घणियबंधणबंधे य। 1. [-भगवतीसूत्र : अ. वत्ति, पत्र 742 —सरीरेणोयाहारो, तया य फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो॥ 2. भगवती; अ. वत्ति, पत्र 742 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org