________________ सत्तरसमं सयं : सत्तरहवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का यह सत्तरहवां शतक है / * इस में भविष्य में मोक्षगामी हाथियों का तथा संयत ग्रादि की धर्म, अधर्म, धर्माधर्म में स्थिति का, शैलेशो अनगार के द्रव्य-भावकम्पन का, क्रियानों का, ईशानेन्द्र सभा का, पांच स्थावरों के उत्पाद एवं पाहारग्रहण में प्राथमिकता का, तथा नागकुमार आदि भवनपतियों में प्राहारदि की समानता-असमानता का 17 उद्देशकों में प्रतिपादन किया गया है। * प्रथम उद्देशक में कुणिक सम्राट् के उदायी और भूतानन्द नामक गजराजों की भावी गति तथा मोक्षगामिता का वर्णन है / तत्पश्चात् ताइफल को हिलाने गिराने तथा सामान्य वृक्ष के मूल, कन्द आदि को हिलाने-गिराने वाले व्यक्ति को, उक्त फलादि के जीव को, वृक्ष को, तथा उसके उपकारक को लगने वाली क्रियाओं की तथा शरीर इन्द्रिय और योग को निष्पन्न करने वाले एक या अनेक पुरुषों को लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है / अन्त में, औयिक प्रादि छह भावों का अनुयोगद्वार के प्रतिदेशपूर्वक वर्णन है / द्वितीय उद्देशक में संयत, असंयत संयतासंयत, सामान्य जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के धर्म, अधर्म या धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा की गई है। तदनन्तर इन्हीं जीवों के बाल, पण्डित या बाल-पण्डित होने की अन्यतीथिकमत की निराकरण पूर्वक विचारणा की गई है। फिर अन्यतीथिक की जीव और जीवात्मा के एकान्त भिन्नत्व को मान्यता का खण्डन करके कथंचित भेदाभेद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्त में, महद्धिक देव द्वारा मूर्त से अमूर्त बनाने अथवा अमूर्त से मूर्त प्रकिार बनाने के सामर्थ्य का निषेध किया गया है / * ततीय उद्देशक में शैलेशो अनगार की निष्प्रकम्पता का प्रतिपादन करके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-माव एजना की तथा शरीर-इन्द्रिय-योग-चलना की चौवीसदण्डकों की अपेक्षा चर्चा की गई है। अन्त में संवेगादि धर्मों के अन्तिम फल-मोक्ष का प्रतिपादन किया गया है / चतुर्थ उद्देशक में जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा प्राणातिपातादि क्रिया स्पर्श करके की जाने की तथा समय, देश, प्रदेश की अपेक्षा से ये ही क्रियाएँ स्पृष्ट से लेकर पानुपूर्वीकृत की जाती हैं, इस तथ्य की प्ररूपणा को गई है / अन्त में, जीवों के दुःख एवं वेदना को वेदन के आत्मकतृत्व की प्ररूपणा की गई है। * पंचम उद्देशक में ईशानेन्द्र को सुधर्मासभा का सांगोपांग वर्णन है / * छठे से लेकर नौवें उद्देशक तक में रत्नप्रभादि नरकवियों में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प से यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक में पृथ्वीकायादि चार स्थावरों में उत्पन्न होने योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org