________________ 604] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पवाडेमाणे-नीचे गिराता हुया / णिव्यत्तिए-निष्पन्न (उत्पन्न) हा / गरुयत्ताए–भारीपन से / ववरोवेइ-घात करता है / पवाडेइ-नीचे गिराता है / ' वीससाए-स्वाभाविक रूप से / वृक्ष के मूल, कन्द प्रादि को हिलाने आदि से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रिया प्ररूपणा 10. पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेति वा पवाडेति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे / जेसि पि प णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निवत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा। [10 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाए या नीचे गिराए तो उसको कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [10 उ. गौतम ! जब तक वह पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाता या नीचे गिराता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी से लेकर यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीरों से मूल यावत् बीज निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 11. अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गल्ययाए जाव जीवियानो ववरोवेति तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चहि किरियाहिं पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निवत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चहिं० पुट्ठा / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा / जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोक्यमाणस्स उयग्गहे वति ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंहि किरियाहि पुट्ठा। |11 प्र. भगवन् ! यदि वह मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे, तो (ऐसी स्थिति में) उस मूल को हिलाने वाले और नीचे गिराने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [11 उ.] गौतम ! जब तक मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरता है, यावत् अन्य जीवों का हनन करता है ; तब तक उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से वह कन्द निष्पन्न हुअा है यावत् बीज निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी प्रादि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। तथा जो जीव नीचे गिरते हुए मूल के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2597 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org