________________ [व्याख्यानमाप्तिसूत्र 6. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जति ? जहा पाणातिवाएणं दंडओ एवं मुसाबातेण वि। [6 प्र.] भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट ? [6 उ.] गौतम ! प्राणातिपात के दण्डक (मालापक) के समान मृषावाद-क्रिया का भी दण्डक कहना चाहिए। 7. एवं अदिण्णादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि / एवं एए पंच दंडगा। [7] इसी प्रकार प्रदत्तादान, मैथुन और परिग्रह (की क्रिया) के विषय में भी जान लेना चाहिए / इस प्रकार (ये कुल) पांच दण्डक हुए / विवेचन---प्राणातिपातादि पांच क्रियाएँ : स्वरूप तथा विश्लेषण प्रस्तुत प्रकरण में प्राणातिपातादि क्रियाएँ कार्यकरणभावसम्बन्ध की अपेक्षा से कर्म (पापकर्म) अर्थ में हैं। जीव जो भी प्राणातिपातादि क्रिया (कर्म) करते हैं, वह स्पृष्ट अर्थात्-प्रात्मा का स्पर्श होकर की जाती है, अस्पृष्ट नहीं / अगर अात्मा से अस्पृष्ट ये क्रियाएँ की जाने लगे तो अजीव या मृतप्राणी के द्वारा भी की जाने लगेंगी। सभी जीवों की अपेक्षा नियमत: छह दिशा से की जाती हैं, किन्तु पौधिक (सामान्य) जीव दण्डक में और एकेन्द्रिय जीवों में निर्व्याघात की अपेक्षा तो ये क्रियाएँ छहों दिशानों से की जाती हैं। व्याघात की अपेक्षा से जब एकेन्द्रिय जीव, लोक के अन्त में रहे हुए होते हैं, तब ऊपर और आसपास की दिशाओं में अलोक होने से कर्मों के आने की सम्भावना नहीं है। इसलिए वे यथासम्भव कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए कर्म (उपाजित) करते हैं / शेष जीव लोक के मध्य भाग में होने से नियमतः छह दिशात्रों से आए हुए कर्म उपाजित करते हैं, क्योंकि लोक के मध्य में व्याघात नहीं होता। इस प्रकार प्राणातिपात अादि पांच पापकर्मों (क्रियाओं) के स्पृष्ट और अस्पृष्ट विषयक पांच दण्डक हैं।' 'जाव अणाणुपुत्विकडा' : सूचित पाठ और अर्थ-यहाँ प्रथम शतक, छठे उद्देशक, सू. 7 के अनुसार 'पुढा, कडा, अत्तकडा, प्राणु पुब्धिकडा' (अर्थात्-स्पृष्ट, कृत, आत्मकृत, आनुपूर्वीकृत) ये पांच और पांच इससे विपरीत,-अस्पृष्ट, अकृत, अनात्मकृत, अनानुपूर्विकृत, ये पद सूचित हैं / तथा प्राणातिपात आदि पांच पापकर्मों के साथ प्रत्येक के पांच-पांच दण्डक सूचित किये गए हैं / इसका आशय यह है कि (1) ये क्रियाएँ जीव स्वयं करते हैं, बिना किये ये नहीं होती, (2) ये क्रियाएँ मनवचन-काया से स्पृष्ट होती हैं, (3) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, विना किये नहीं लगती, फिर भले ही ये क्रियाएँ मिथ्यात्व आदि किसी कारण से की जाती हैं। (4) ये क्रियाएँ स्वयं करने से (प्रात्मकृत) लगती हैं, ईश्वर, काल आदि दूसरे के करने से नहीं लगती। (5) ये क्रियाएँ अनुक्रमपूर्वक कृत होती हैं। 1. (क) वियाहाण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 784 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) अ. 5, पृ. 2625 2. भगवती. (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र) खण्ड 1 (श्री प्रागमप्र. समिति), पृ. 110-111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org