________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [661 जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य सशरीर-शरीर भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 60. ससरीरी जहा आहारए (सु० 6-11) / एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं; नवरं पाहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु० 33-37) / [60 सशरीरी जीव, (स. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीरी जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए। किन्तु आहारक-शरीरी के विषय में, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि जीव के समान कहना चाहिए। 61. प्रसरीरी जीवे सिद्ध एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा / [61] अशरीरी जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / विवेचन–(१३) शरीरद्वार-प्रस्तुत द्वार (सू. 60-61) में समस्त सशरीरी और अशरीरी जीवों के सशरीरत्व-अशरीरत्व की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। सशरीरी जीव-आहारकशरीरी को छोड़कर औदारिकादि शरीरधारी जीव को आहारकजीववत अप्रथम समझना चाहिए। प्राहारक शरीरी एक या अनेक जीव, सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम है / ___ अशरीरी जीव-जीव और सिद्ध एकवचन से हो या बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / / जीव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से, यथायोग्य पर्याप्त भाव को अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 62. पंचहि पज्जत्तीहि, पंचहि अपज्जत्तोहिं एगत्त-पुहत्तेणं जहा प्राहारए (सु० 9-11) / नवरं जस्स जा अत्थि, जाव वेमाणिया, नो पढमा, अपढमा / [12] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि जिसके जो पर्याप्ति हो, वह कहनी चाहिए। इस प्रकार नै रयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। अर्थात्- ये सब प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / विवेचन-(१४) पर्याप्तिद्वार–इस द्वार में (सू. 62 में) चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पर्याप्तभाव-अपर्याप्तभाव की अपेक्षा से एकवचन-बहुवचन में आहारकजीवों के अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व अप्रथमत्व का यथायोग्य निरूपण किया गया है। अर्थात्-पर्याप्त और अपर्याप्तक सभी जीव अप्रथम हैं, प्रथम नहीं। 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org