________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 2] एक हजार आठ व्यापारी-मित्रों से परामर्श, तथा उनको भी प्रव्रज्या ग्रहण की तैयारी 3. [3] "तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्खमइ, प०२ जेणेव हत्यिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गमट्ठसहस्सं सहावेइ, स० 2 एवं वयासी—'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए मुणिसुब्बयस्स अरहो अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुयिते / तए णं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुधिग्गे जाव पव्वयामि / तं तुभे गं देवाणुप्पिया! किं करेह ? कि ववसह ? के भे हिदइच्छिए ? के भे सामत्थे ?" "तए णं तं गमट्टसहस्सं तं कत्तियं सेप्ठि एवं वदासी-'जदि णं देवाणुप्पिया संसारभयुधिग्गा जाव पन्वइस्संति अम्हं देवाणुप्पिया ! कि भन्ने प्रालंबणे वा आहारे वा पडिबंधे का? अम्हे विणं देवाणुप्पिया! संसारभउविग्गा भीता जम्मण-मरणाणं देवाणुप्पिएहि सद्धि मुणिसुब्वयस्स प्ररहयो अंतियं मुडा भवित्ता अगाराओ जाय पव्वयामो' / " "तए णं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमठ्ठसहस्सं एवं वयासी-जदि पं देवाणुप्पिया ! संसारभयुधिग्गा भोया जम्मण-मरणाणं मए सद्धि मुणिसुब्वयस्स जाव पव्वयह, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सएसु गिहेसु०' जेट्टपुत्ते कुडौंबे ठावेह, जेठ ठा० 22 पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ दुरुहह, पुरिस० दुरु० 23 अकालपरिहोणं चेव मम अंतियं पादुभवह'।" ___ "तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एतमट्ट विणएणं पडिसुणेति, प० 2 जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 विपुलं असण जाव उववडावेति, उ० 2 मित्तनाति० जाव तस्सेव मित्तनाति० जाव पुरतो जेट्टपुत्ते कुडुबे ठावेति, जे० ठा० 2 तं मित्तनाति जाव जेट्टपुत्ते य आपुच्छति, आ० 2 पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ दुरूहति, पु० दुरू० 2 मित्तणाति० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा (? गे) सव्विड्डोए जाव रवेणं प्रकालपरिहोणं चेक कत्तियस्स सेद्विस्स अंतियं पाउन्भवति / [3-3] तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् (उस धर्म-परिषद् से) निकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ पाया। फिर उसने उन एक हजार पाठ व्यापारी मित्रों को बुला कर इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना। वह धर्म मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा / हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सुनने के पश्चात् मैं संसार (जन्ममरणरूप चातुर्गतिक संसार) के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् मैं तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तो हे देवानुप्रियो ! तुम सब क्या करोगे ? क्या यहाँ कछ प्रतियों में अधिक पाठ मिलता है.... 1. विपुलं असणं उक्खडावेह, मित्तनाइ० जाय पुरओ ..... / ' 2. ... .."मित्तताइ जाव जेट्टपुत्त आपुच्छह आपु० 2..." / ' 3. ....."मित्तलाइ जाव परिजण जेट्रपुत्त हि य समागम्ममाणमग्गा सविडोए जाव रवेणं"।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org