________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [671 विवेचन-कार्तिक सेठ का सामान्य परिचय-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ने कार्तिक सेठ का सामान्य परिचय देते हुए कहा कि वह हस्तिनापुरनिवासी था, वह प्राढ्य, दीप्त, वित्त (विज्ञात या विख्यात) यावत् अपराभूत यानी किसी से दबने वाला नहीं था। वह नगर के 1008 व्यापारियों में अग्रगण्य था, मेढी (केन्द्रीय स्तम्भ), प्रमाण, आधार और पालम्बन यावत् चक्षुरूप (नेता) था। 'कन्जेसु' इत्यादि शब्दों का भावार्थ-कज्जेसु-गृहनिर्माण तथा स्वजनसम्मान आदि कार्यों में, कारणेसु-अभीष्ट बातों के कारणों में, कृषि, पशुपालन, वाणिज्यादि अभीष्ट वस्तुओं के विषय में / कोड बेसु-कौटुम्बिक मनुष्यों के विषय में / राजप्रश्नीय पाठ का स्पष्टीकरण मंतेसु--मंत्रणाएँ करने या विचार विमर्श करने में / गुज्झसुलज्जायोग्य गुप्त या गोपनीय बातों के विषय में। रहस्सेसु-सामाजिक या कौटुम्बिक रहस्यमय या एकान्त के योग्य बातों में / ववहारेसु-पारस्परिक व्यवहारों में, लेनदेन में। निच्छएसु-निश्चयों में कई बातों का निर्णय करने में। आपुच्छणिज्जे- एक बार पूछने योग्य / पडिपुच्छणिज्जे-बारबार पूछने योग्य / मेढी : प्राशय-जिस प्रकार भूसे में से धान निकालने के लिए खलिहान के बीच में एक स्तम्भ गाड़ा जाता है, जिसको केन्द्र में रख कर उसके चारों ओर धान्य को गाहने के लिए बैल चक्कर लगाते हैं। इसी प्रकार जिसको केन्द्र में रख कर सभी कुटुम्बीजन और व्यापारीगण, विवेचना करते थे, विचारविमर्श करते थे। पमाण-प्रत्यक्षादि प्रमाणवत् उसकी बात अविरुद्ध (प्रमाणित) होती थी। इसलिए उसको प्रमाणभूत मान कर उचित कार्य में प्रवृत्ति या अनुचित से निवृत्ति की जाती थी। प्राहारे : माधार-जैसे आधार, आधेय का उपकारक होता है, वैसे ही वह आधार लेने वाले लोगों के सर्व कार्यों में उपकारी होता था। आलंबणं-आलम्बन : सहारा,-जैसे रस्सी आदि गिरते हुए के लिए पालम्बन (सहारा) होती है, वैसे ही वह विपत्ति में या पतन के गड्ढे में पड़ते हुए या पड़े हुए के लिए आलम्बन था। चक्ख : चक्षु-नेत्रवत् पथ-प्रदर्शक / जैसे नेत्र विविध कार्यों को या मार्ग को दिखाते हैं, वैसे ही वह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप विविध कार्यों में पथ-प्रदर्शक था। चक्खुभूए इत्यादि : अभिप्राय---मेढ़ी प्रादि पदों के आगे लगाया हुआ 'भूत' शब्द उपमार्थक है। यानी मेढ़ी के तुल्य यावत् चक्षु के समान / ' गमसहस्सस्स-एक हजार पाठ नैगमों अर्थात् वणिकों का / मुनिसुव्रतस्वामी से धर्मकथा-श्रवण और प्रवज्या ग्रहण की इच्छा 3. [2] तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुन्वये अरहा प्रादिगरे जहा सोलसमसए (स० 16 उ०५ सु० 16) तहेव जाव समोसवे जाव परिसा पज्जुवासति / 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 731 Jain Education International For Private & Personal Use Only *www.jainelibrary.org