________________ 672] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र "तए णं से कत्तिए सेट्ठी इमोसे कहाए लखट्टे समाणे हटतुटु० एवं जहा एक्कारसमसते सुदंसणे (स० 11 उ० 11 सु० 4) तहेव निम्मो जाव पज्जुवासति / " "तए णं मुणिसुव्वए परहा कत्तियस्स सेहिस्स धम्मकहा जाय परिसा पडिगता।" "तए णं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वय० जाव निसम्म हट्टतुट्ठ० उठाए उठेति, उ० 2 मुणिसुन्वयं जाव एवं वदासी-'एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे बदह / जं नवरं देवाणुपिया! नेगमट्ठसहस्सं पापुच्छामि, जेहपुत्तं च कुडुचे ठानि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पश्चयामि' / 'अहासुहं जाव मा पडिबंध' / " [3-2] उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले ग्रहत् श्री मुनिसुक्त तीर्थकर वहाँ (हस्तिनापुर में) पधारे; यावत् समवसरण लगा। इसका समग्न वर्णन जैसे सोलहवें शतक (के पंचम उद्देशक सु. 16) में है। उसी प्रकार (यहाँ समझना; ) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठो भगवान् के पदार्पण का वृत्तान्त सुन कर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि / जिस प्रकार ग्यारहवें शतक (उ. 11 के सू. 4) में सुदर्शन-श्रेष्ठो का बन्दनार्थनिर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए निकला, यावत् पर्युपासना करने लगा। तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हत् ने कार्तिक सेठ (तथा उस विशाल परिषद्) को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् लौट गई / कार्तिक सेठ, भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा–'भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही यावत् है / हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार पाठ व्यापारी मित्रों से पृछंगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौपूंगा और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास प्रजित होऊँगा / (भगवान्-) देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु (इस कार्य में) विलम्ब मत करो। विवेचन-कातिक श्रेष्ठी द्वारा धर्मकथाश्रवण और प्रवज्याग्रहण को इच्छा प्रस्तुत परिच्छेद में कार्तिक सेठ द्वारा मुनिसुव्रत तीर्थकर से धर्मश्रवण का अतिदेशपूर्वक वर्णन है / उसके मन में भगवान के निकट दीक्षा ग्रहण करने का विचार हुआ, उसका निरूपण है। ___ व्यापारियों से पूछने का आशय --दीक्षा ग्रहण से पूर्व कार्तिक सेठ अपना कौटुम्बिक भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंपे और कौटुम्बिक जनों से अनुमति ले, यह तो उचित था, किन्तु अपने एक हजार आठ व्यापारिक मित्रों से पूछे, इसके पीछे प्राशय यह है कि वह इन सभी का अत्यन्त विश्वस्त, प्रामाणिक प्रोर अाधारभूत व्यक्ति था, चुपचाप दीक्षा ले लेने से सबको प्राघात और विश्वासघात लगता, इसलिए उनसे पूछना सेठ ने आवश्यक समझा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org