________________ 680] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाव अंतं करेति, एवं खलु वणस्सहकातिए वि जाय अंतं करति सच्चे णं एसम?, अहं पिणं अज्जो ! एवमाइक्खामि 4 एवं खलु प्रज्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेहितो पुढविकाइएहितो जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! नोललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्ततिकाइए वि, सच्चे गं एसम?।। [6] तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थों ने माकन्दिकपुत्र अनगार की इस प्रकार की प्ररूपणा, व्याख्या यावत् मान्यता पर श्रद्धा नहीं की, न ही उसे मान्य किया। [प्र.] वे इस मान्यता के प्रति श्रद्धालु बन कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पाए / फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! माकन्दीपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपणा की कि कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, कापोतलेश्यी अप्कायिक और कापोतलेश्यी बनस्पतिकायिक जीव, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है / हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ?' [उ.] आर्यो ! इस प्रकार सम्बोधन करके, श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमण निर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा--'पार्यो ! माकन्दिकपुत्र अनगार ने जो तुमसे कहा है, यावत् प्ररूपणा की है, कि–'आर्यो ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, कापोतलेश्यी प्रकायिक और कापोतलेश्यी वनस्पति. कायिक, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है, यह कथन सत्य है / हे पार्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ। इसी प्रकार कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में से मर कर, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। इसी प्रकार हे पार्यो ! नीललेश्यी पृथ्वीकायिक भी...' यावत सब दःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार कापोतलेश्यी पथ्वीकायिक भी यावत सर्वदःखों का अन्त करता है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक के विषय में कहा है, उसी प्रकार प्रकायिक और वनस्पतिकायिक भी, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / यह कथन सत्य है / 7. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति समणा निगंथा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव मार्गवियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 मागवियपुत्तं अणगारं वदति नभसंति, वं० 2 एयमसम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेंति / [7] हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यों कह कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, और वे जहाँ माकन्दीपुत्र अनगार थे, वहाँ पाए। उन्हें वन्दना-नमस्कार किया। फिर उन्होंने (उनके कथन पर श्रद्धा न करने के कारण) उनसे सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। विवेचन-माकन्दीपुत्र अनगार के प्रश्नों का समाधान-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1 से 4 तक) में माकन्दीपुत्र अनगार द्वारा पूछे गए कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप-वनस्पतिकायिक जीव, अपने-अपने काय से मर कर अन्तररहित मनुष्य शरीर पाकर केवलज्ञानी बन कर सिद्ध हो सकते हैं या नहीं? इन प्रश्नों का स्वीकृतिसुचक समाधान भगवान् द्वारा किया गया है / तत्पश्चात् सू. 5 से 7 तक में माकन्दीपुत्र द्वारा उसी तथ्य का प्ररूपण श्रमणनिर्ग्रन्थों के समक्ष करने, किन्तु उनके द्वारा मान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org