________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 40. सम्मामिच्छद्दिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्महिछो (सु० 33-37), नवरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं / [40] सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव के विषय में एकवचन और बहुवचन से सम्यमिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि जिस जीव के सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो, (उसी के विषय में यह पालापक कहना चाहिए।) विवेचन--(६) दृष्टिद्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 33 से 40 तक) एक या अनेक सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि के विषय में सम्यग्दृष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रतिदेश पूर्वक प्रथमत्व-अप्रथमत्व को प्ररूपणा की गई है। सभी सम्यग्दृष्टि जोब प्रथम अप्रथम किस अपेक्षा से ?--कोई सम्यग्दृष्टि जीव, जब, पहली बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तब वह प्रथम है, और कोई सम्यग्दर्शन से गिर कर दूसरी-तीसरी बार पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, तब वह अप्रथम है / एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, इसलिए एकेन्द्रियों के पांच दण्डक छोड़कर शेष 16 दण्डकों के विषय में यहाँ कहा गया है। सिद्धजीव, सम्यग्दृष्टिभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत सम्यक्त्व उन्हें मोक्षगमन के समय ही प्राप्त होता है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव अप्रथम क्यों ? -मिथ्यादर्शन अनादि है, इसलिए सभी मिथ्यादृष्टिजीव मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं। सम्यगमिथ्यादष्टि जीव सम्यग्दृष्टिवत् क्यों ? -जो जोव पहली बार मिश्रदृष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह प्रथम है, और मिश्रदृष्टि से गिरकर दूसरी तीसरी बार पुनः मिश्रदष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह अप्रयम है। मिश्रदर्शन नारक आदि के होता है, इसलिए मिश्रदष्टिवाले दण्डकों के विषय में ही यहाँ प्रथमत्व अप्रथमत्व का विचार किया गया है।' जोव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व से संयतभाव को अपेक्षा प्रथमत्वअप्रथमत्व निरूपण 41. संजए जोवे मणुस्से य एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [41] संयत जीव और मनुष्य के विषय में, एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा, सम्यग्दृष्टि जोत्र (की वक्तव्यता सू. 33-37 में उल्लिखित) के समान (जानना चाहिए / ) 42. अस्संजए जहा आहारए (सु० 9-11) / [42] असंयतजीव के विषय में सु. 6-11 में उल्लिखित] प्राहारक जीव के समान (समझना चाहिए।) 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्र 734 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org