________________ 654] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 26. असण्णो एवं चेव एगत्त-पुहत्तेणं, नवरं जाव वाणमंतरा। [26] असंज्ञोजीवों को एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए) / विशेष इतना है कि यह कथन वाणव्यन्तरों तक ही (जानना चाहिए)। 27. नोसष्णो नोअसण्णी जोवे मणुस्से सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [27] नोसंजी-नोग्रसंज्ञो जीव, मनुष्य और सिद्ध, नो-संज्ञी-नो-प्रसंज्ञी भाव की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं। 28. एवं पुहत्तेण वि। [28] इसी प्रकार बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी कहनी चाहिए)। विवेचन–(४) संज्ञी-द्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 23 से 28 तक में) संजी, विकलेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक के जीव, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी वक्तव्यता क्रमश: संजी-असंज्ञी भाव एवं नो-संज्ञी-नोग्रसंज्ञी भाव की अपेक्षा से कही गई है। फलितार्थ-संज्ञीजीव संज्ञो भाव की अपेक्षा से अप्रथम है, क्योंकि संजीपन अनन्त वार प्राप्त हो चुका है / तथा एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक को छोड़ कर दण्डक क्रम से नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जोव भी संज्ञो भाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं। प्रसंजीजीव, एक हो या अनेक, असंज्ञो भाव को अपेक्षा से अप्रथम हैं, क्योंकि नैरयिक से लेकर वाणव्यन्तर तक संज्ञी होने पर भी भूतपूर्वगति की अपेक्षा से तथा नारक आदि में उत्पन्न होने पर कुछ देर तक वहाँ (नरकादि में) असंज्ञित्व रहता है। असंज्ञीजोवों का उत्पाद वाण-व्यन्तर तक होता है / पृथ्वोकाय आदि असंज्ञो जीव तो असंजीभाव को अपेक्षा से अप्रथम हैं हो। नोसंज्ञो-नो-प्रसंज्ञो जीव सिद्ध ही होते हैं, परन्तु यहाँ समुच्चय जोव और मनुष्य जो सिद्ध होने वाले हैं, इसलिए उनको भी नोसंज्ञी-नोअसंज्ञित्व की अपेक्षा से प्रथम कहा गया है / क्योंकि यह भाव उन्हें पहले कभी प्राप्त नहीं हना था / / सलेश्यी, कृष्णादिलेश्यी एवं अलेश्यी जीव के विषय में सलेश्यादि भाव को अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 29. सलेसे णं भंते ! 0 पुच्छा / गोयमा ! जहा आहारए। [26 प्र. भगवन् ! सलेश्यी जोव, सलेश्यभाव से प्रथम है, अथवा अप्रथम ? [26 उ.] गौतम ! (सू. 6 में उल्लिखित) आहारकजीव के समान (वह अप्रथम है।) 30. एवं पुहत्तेण वि। [30] बहुवचन की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 734 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org