________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 3] [623 और भविष्य में भी चलना करेंगे। इसलिए हे गौतम ! मनोयोग से सम्बन्धित चलना को मनोयोगचलना कहा जाता है। 21. एवं वइजोगचलणा वि / एवं कायजोगचलणा वि। [21] इसी प्रकार वचनयोगचलना एवं काययोगचलना के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 15 से 21 तक) में औदारिकादि पाँच शरीरचलनाओं, श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रिय-चलनात्रों एवं मनोयोगादि तीन योगचलनाओं का सहेतुक स्वरूप बताया गया है।' संवेग निर्वेदादि उनचास पदों का अन्तिम फल : सिद्धि 22. अह भंते ! संवेगे निव्वेए गुरु-साधम्मियसुस्सूसणया आलोयणया निंदणया गरणया खमावणया सुयसहायता विमोसमणया, भावे अपडिबद्धया विणिवट्टणया विवित्तसयणासणसेवणया सोतिदियसंवरे जाव फासिदियसंवरे जोगपच्चक्खाणे सरीरपच्चक्खाणे कसायपञ्चवखाणे संभोगपच्चक्खाणे उहिपच्चक्खाणे भत्तपच्चक्खाणे खमा विरागया भावसच्चे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमन्नाहरणया वइसमन्नाहरणया कायसमन्नाहरणया कोहविवेगे जाब मिच्छादसणसल्लविवेगे, गाणसंपन्नया दसणसंपन्नया चरित्तसंपन्नया वेदमअहियासणया मारणतिय ह्यिासणया, एए गं भंते ! पदा फिपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो! ? गोयमा ! संवेगे निम्बेए जाव मारणंतियअहियासणया, एए गं सिद्धिपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो ! / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // सत्तरसमे सए : तइप्रो उद्देसओ समत्तो // 17-3 // [22 प्र.] आयुष्यमन् श्रमण भगवन् ! संवेग, निवेद, गुरु-सार्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गहणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्तना, विविक्तशयनासन-सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत स्पर्शेन्द्रिय-संवर. योग-प्रत्याख्यान. शरीर-प्रत्याख्यान. कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य, मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण, काय-समन्वाहरण, क्रोध-विवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-सम्पन्नता दर्शन-सम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदनाअध्यासनता, और मारणान्तिक अध्यासनता, इन पदों का अन्तिम फल क्या कहा गया है ? 22 उ.] हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! संवेद, निर्वेद आदि यावत्-मारणान्तिक-अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल सिद्धि (मुक्ति) है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी), यावत् विचरते हैं। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 782-783 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org