________________ उत्तरहवां शतक : उद्देशक 1] [605 12. पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स कंदं पचालेइ० ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहि पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे' निव्वतिते ते वि णं जीवा जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा।। [12 प्र.] भगवन् ! जब तक वह पुरुष कन्द को हिलाता है या नीचे गिराता है, तब तक उसे कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुआ है, वे जीव भी कायिको आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। 13. अहे णं भंते ! से कंदे अपणो जाव चउहिं० पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिते, खंधे निवत्तिते जाव चउहिं० पुट्टा / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तिते ते वि णं जाव पंचहि० पुट्ठा / जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स जाव पंचहि० पुट्टा। [13 प्र.] भगवन् ! यदि वह कन्द अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [13 उ.] गौतम ! उस पुरुष को कायिको अादि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल, स्कन्ध आदि निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए उस कन्द के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं। 14. जहा कंदो एवं जाव बीयं / [14] जिस प्रकार कन्द के विषय में आलापक कहा, उसी प्रकार (स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल) यावत् बीज के विषय में भी कहना चाहिए / विवेचन—प्रस्तुत पांचों सूत्रों (सू. 10 से 15 तक) में वृक्ष के मूल और कन्द को हिलातेगिराते समय हिलाने-गिराने वाले पुरुष को, तथा मूल एवं कन्द के जीव, वृक्ष, एवं उपकारक आदि को लगने वाली क्रियाओं का तथा इसी से सम्बन्धित स्कन्ध से बीज तक से सम्बन्धित क्रियाओं का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया है / इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्ष, फल और बीज के विषय में पूर्वोक्त छह क्रियास्थानों का निर्देश समझना चाहिए / शरीर, इन्द्रिय और योग : प्रकार तथा इनके निमित से लगने वाली किया 15. कति णं भंते ! सरोरगा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा-ओरालिए जाव कम्मए / 1. पाठान्तर- ......""मूले निव्वत्तिते जाव बीए.निवत्तिए / 2. वियाहपण्णत्तियुत्तं, भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ, 774-775 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 721 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org