________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [575 ण्णाइण्णे- ज्ञानादिगुणों से प्राकीर्ण (व्याप्त) चातुर्वर्ण्य (चतुर्विध) संघ / उग्घाइए-नष्ट किया / ओराला--उदार / ' एक-दो भव में मुक्त होने वाले व्यक्तियों को दिखाई देने वाले 14 प्रकार के स्वप्नों का संकेत 22. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हयपंति वा गयति वा जाव' उसभपति वा पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरुहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेक बुज्झति, तेणेव भवगहणणं सिझति जाव अंतं करेति / [22] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् अश्वपंक्ति, गजपंक्ति अथवा यावत् वृषभ-पक्ति का अवलोकन करता हुआ देखे, और उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता हुआ चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने ऐसा स्वप्न देख कर तुरन्त जागृत हो. तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 23. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणेते एगं महं दामिणि पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दे पुटु पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेण जाव अंतं करेइ / [23] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, समुद्र को दोनों ओर से छूती हई, पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत एक बड़ी रस्सी (गाय आदि को बांधने की रस्सी) को देखने का प्रयत्न करता हमा देखे, अपने दोनों हाथों से उसे समेटता हना समेटे, फिर अनूभव करे कि मैंने स्वयं रस्सी को समेट लिया है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जागृत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 24. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं रज्जु पाईणपडीणायतं दुहतो लोगते पुढे पासमाणे पासति, छिदमाणे छिदइ, छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव अंतं करेइ / [24] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, दोनों प्रोर लोकान्त को स्पर्श की हुई तथा पूर्व-पश्चिम लम्बी एक बड़ी रस्सी को देखता हुआ देखे, उसे काटने का प्रयत्न करता हा काट डाले / (फिर) मैंने उसे काट दिया, ऐसा स्वयं अनुभव करे, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग जाए तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 25. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं किण्हसुत्तगं वा जाव सुक्किलसुत्तगं वा पासमाणे पासति, उग्गोवेमाणे उम्गोवेइ, उग्गोवितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव अंतं करेति / [25] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, एक बड़े काले सूत को या सफेद सूत को देखता हुआ देखे, और उसके उलझे हुए पिण्ड को सुलझाता हुआ सुलझा देता है और मैंने उसे सुलझाया 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 711 2, 'जाव' यद सूचक पाठ-'नरपंति' बा किन्नर-किंपरिस-महोरग-गंधव्व त्ति / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org