________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [577 कि मैंने इनको उखाड़ फेंका है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / 30. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं खीरकुभं वा दधिकुंभं वा घयकुभं वा मधुकुभं वा पासमाणे पासति, उप्पाडेमाणे' उप्पाडेति, उपाडितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति / [30] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् क्षीरकुम्भ, दधिकुम्भ, घृतकुम्भ, अथवा मधुकुम्भ देखता हुआ देखे और उसे उठाता हुआ उठाए तथा ऐसा माने कि स्वयं ने उसे उठा लिया है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह व्यक्ति उसी भव में सिद्ध हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / 31. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं सुरावियउकुभं वा सोवीरगवियडकुभं वा तेल्लकुभं वा वसाकुभ वा पासमाणे पासति, भिदमाणे भिदति, भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्चेणं भव० जाव अंतं करेति / [31] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् सुरारूप जल का कुम्भ, सौवीर (कांजी) रूप जल कुम्भ, तेलकुम्भ अथवा वसा (चर्बी) का कुम्भ देखता हुआ देखे, फोड़ता हुआ उसे फोड़ डाले तथा मैंने उसे स्वयं फोड़ डाला है, ऐसा माने, ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो वह दो भव में मोक्ष जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर डालता है। 32. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति / [32] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् कुसुमित पद्मसरोवर को देखता हुआ देखे, उसमें अवगाहन (प्रवेश) करता हुमा अवगाहन करे तथा स्वयं मैंने इसमें अवगाहन किया है, ऐसा अनुभव करे तथा इस प्रकार का स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सब दु:खों का अन्त करता है। 33. इत्थी वा जाव सुविणते एग महं सागरं उम्मी-बीयो जाव कलियं पासमाणे पासति, तरमाणे तरति, तिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति / [33] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को देखता हुआ देखे, तथा तरता हुअा पार कर ले, एवं मैंने इसे स्वयं पार किया है, ऐसा माने, इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 34. इत्थी वा जाव सुविणंते एग महं भवणं सव्वरयणामयं वासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति, अणुष्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति० तेणेव जाव अंतं करेति / 1. पाठान्तर--'उम्घाडेमाणे, उग्घाति, उग्धाडित....' (ढकना खोलता हुया, खोलता है, खोल दिया ...") Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org