________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [561 एवं जहा मूरियामो' जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेति, उव० 2 जाव तामेव दिसं पडिगए। [14 प्र.] उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान महावीर से धर्मदेशना सुनकर और अवधारण करके दृष्ट-तुष्ट हुप्रा और फिर उसने खड़े हो कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या प्रभवसिद्धिक ? [14 उ.] हे गंगदत्त ! (राजप्रश्नीय सूत्र के) सूर्याभदेव के समान (यहाँ समग्र कथन समझना / ) फिर गंगदत्त देव ने भी सूर्याभदेववत् बत्तीस प्रकार को नाट्यविधि (नाट्य कला) प्रदशिन की और फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। विवेचन -प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 6 से 14 तक) में गंगदत्त देव द्वारा भगवान् की सेवा में पहुँच कर अपनी पूर्वोक्त शंका का समाधान प्राप्त करके, फिर भगवान् की पर्युपासता करके उनसे धर्मकथा सुनकर तथा अपनी भवसिद्धिकता के विषय में भगवान् से निर्णय प्राप्त करके हृष्टतुष्ट होकर सूर्याभदेववत् नाट्यकला दिखाने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है / मिथ्यादष्टि और सम्यग्दष्टि देव का कथन-मिथ्यादष्टि देव का कथन था कि-'जो पुद्गल अभी परिणम रहे हैं, उन्हें 'परिणत' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वर्तमानकाल और भूतकाल में परस्पर विरोध है / उन्हें 'अपरिणत' कहना चाहिए।' सम्यग्दृष्टि देव ने उत्तर दिया-परिणमते हुए पुद्गलों को परिणत कहना चाहिए, अपरिणत नहीं, क्योंकि जो परिणमते हैं, उनका अमुक अंश परिणत हो चुका है, अत: वे सर्वथा 'अपरिणत' नहीं रहे। 'परिणमते हैं।' यह कथन उस परिणाम के सद्भाव में ही हो सकता है, असद्भाव में नहीं / जब परिणाम का सद्भाव मान लिया गया हो तो, अमुक अंश में उसकी परिणतता भी अवश्य माननी चाहिए; अन्यथा पुद्गल का अमुक अंश में परिणमन हो जाने पर भी उसको परिणतता का सर्वथा अभाव हो जाएगा / इसीलिए भगवान् ने सम्यग्दृष्टि देव द्वारा कथित तथ्य का समर्थन करते हुए कहा-'सच्चमेसे कठिनशब्दार्थ-जावं जब तक या जिस समय / तावं---तभी / हव्वमागए-शीघ्र पा पहुँचा। जाब शब्द सुचक पाठ---'सम्मादिदी मिच्छादिदी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए, सुलभबोहिए, दुल्न भबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे', इत्यादि / –अ. व. पत्र 708 2. वियाहपण्यत्तिसुत्तं (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 757-758 3. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 777 (ख) भगवनी. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ.' 2542 4. वही, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2545 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org