________________ 560] [व्यख्याप्रज्ञप्तिसूत्रा [6] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी भगवान् गौतमस्वामी से यह (उपर्युक्त) बात कह रहे थे, इतने में ही वह देव (अमायी सम्यग्दृष्टि देव) शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा / 10. तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, 2 एवं वदासी-"एवं खलु भंते ! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छद्दिद्विउववन्नए देवे ममं एवं वदासी'परिणममाण पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया' / तए णं अहं तं मायिमिच्छद्दिट्टिउववन्नगं देवं एवं वदामि–'परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया। से कहमेयं भंते ! एवं?" [10] उस देव ने पाते ही श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया और पूछा--भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायी मिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा परिणमते हुए पुद्गल अभी 'परिणत' नहीं कहे जा कर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणम रहे हैं / इसलिए वे 'परिणत' नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं। तब मैंने (इसके उत्तर में) उस मायी मिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहा–'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं। भगवन् ! इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ?' 11. 'गंगदत्ता !'ई समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वदासी-अहं पि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि० 4 परिणममाणा पोग्गला जाव नो अपरिगया, सच्चमेसे अट्ठ। [11 उ.] 'हे गंगदत्त !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा-'गगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं, परिणत हैं / यह अर्थ (सिद्धान्त) सत्य है।' 12. तए णं से गंगदत्त देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं एयम8 सोचा निसम्म हट्टतुटु० समण भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ / [12] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यह उत्तर सुनकर और अवधारण करके वह गंगदत्त देव हषित और सन्तुष्ट हुना। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर वह न अतिदूर और न प्रतिनिकट बैठ कर यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा। 13, तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेति जाव आराहए भवति / [13] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को और महती परिषद् को धर्मकथा कही, यावत्-जिसे सुनकर जीव आराधक बनता है / 14. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स प्रतिये धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उट्ठति, उ०२ समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 एवं वदासी–अहं णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org