________________ 568] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया / [8] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान (सुप्त जानना चाहिए। विवेचन -प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 3 से 8 तक) में सामान्य जीवों और चौबीस दण्डकों में भावतः सुप्त, जागृत एवं सुप्तजागृत को दृष्टि से निरूपण किया गया है / द्रव्य और भाव से सुप्त आदि का आशय -सुप्त और जागृत दो प्रकार से कहा जाता हैद्रव्य की अपेक्षा से और भाव की अपेक्षा से / निद्रा लेना द्रव्य से सोना है और विरति-रहित अवस्था भाव से सोना है। स्वप्न सम्बन्धी प्रश्न द्रव्यसुप्त की अपेक्षा से है / प्रस्तुत में सुप्त, जागृत एवं सुप्तजागत-सम्बन्धी प्रश्न विरति (भाव) की अपेक्षा से है। जो जीव सर्वविरति से रहित हैं, वे भावतः सुप्त हैं / जो जोव सर्वविरत हैं, वे भाव से जागृत हैं और जो जीव देशविरत हैं, वे सुप्त-जागृत (भावतः सोते-जागते) हैं।' संवत आदि में तथारूप स्वप्न-दर्शन की तथा इनमें सुप्त आदि की प्ररूपणा 9. संबुडे गं भंते ! सुविणं पासति, असंबुडे सुविणं पासति, संवुडासंवुडे सुविणं पासति ? गोयमा! संबुडे वि सुविणं पासति, असंखुडे वि सुविणं पासति, संवुडासंबुडे वि सुविणं पासति / संबुडे सुविणं पासति-अहातच्चं पासति / असंवुडे सुविणं पासति--तहा तं होज्जा, अन्नहा वा तं होज्जा / संवुडासंवुडे सुविणं पासति एवं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! संवृत जोय स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है अथवा संवृतासंवृत जीव स्वप्न देखता है ? [6 उ.] गौतम ! संवृत जीव भी स्वप्न देखता है, असंवृत भी स्वप्न देखता है और संवतासंवत भी स्वप्न देखता है / संवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है / असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य (तथ्य) भी हो सकता है और असत्य (अतथ्य) भी हो सकता है। संवृतासंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह भी असंवृत के समान (सत्य-असत्य दोनों प्रकार का) होता है / 10. जीवा णं भंते ! कि संवुडा, असंवुडा, संखुडासंवुडा ? गोयमा ! जीवा संवुडा वि, असंबुडा वि, संखुडासंधुडा वि / [10 प्र. भगवन् ! जीव संवृत हैं, असंवृत हैं अथवा संवृतासंवृत हैं ? [10 उ.] गौतम ! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं और संवृतासंवृत भी हैं। 11. एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियब्यो / [11] जिस प्रकार सुप्त, (जागृत और सुप्त-जागृत) जीवों का दण्डक (पालापक) कहा, उसी प्रकार इनका भी कहना चाहिए / / 1. (क) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधाऽभावात् सुप्तः, सर्वविरतिरूपप्रवरजागरण-सद्भावात् जाग्रत्, तथा अविरति-विरतिरूपप्रसुप्ति-प्रबुद्धतासद्भावात् सुप्त-जाग्रत इति / -भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 711 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org