________________ 492] [व्याण्याप्रज्ञप्तिसूत्र किन्तु शुद्धपानक वाला तीर्थंकर बनता है तब उसके शरीर से स्वत: अग्नि प्रकट होती है, जो उसे जलाती है / बल्कि तीर्थंकर जब मोक्ष जाते हैं, तब ये बातें अवश्य होती हैं, अत: इनके होने में कोई दोष नहीं है। वस्तुतः शुद्धपानक की ऊटपटांग कल्पना का पानक से कोई सम्बन्ध नहीं है।' कठिन शब्दार्थ- वज्जस्स पच्छायणदताए—पाप को ढंकने-छिपाने के लिए / गोप्टए-गाय की पीठ पर से गिरा हुआ पानी / दाथालगं-पानी से भीगा हुग्रा स्थाल / संसि—स्वयं के / अयंपुल का सामान्य परिचय, हल्ला के प्राकार को जिज्ञासा का उद्भव गोशालक से प्रश्न पूछने का निर्णय, किन्तु गोशालक की उन्मत्तवत् दशा देख अयंपुल का वापस लौटने का उपक्रम 96. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए अयंपुले णामं आजीविनोवासए परिवसति प्रड्ढे जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरति / [16] उसी श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का प्राजीविकोपासक रहता था। वह ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत था / वह हालाहला कुम्भारिन के समान आजीविक मत के सिद्धान्त से अपनी प्रात्मा को भावित करता हुआ विचरता था। 97. तए णं तस्स अयंपुलस्स प्राजीविओवासगस्स अन्नदा कदाइ पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाय समुष्पज्जित्था-किसंठिया णं हल्ला पन्नत्ता?। [7] किसी दिन उस अयं पुल आजीविकोपासक को रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्बजागरणा करते हुए इस प्रकार का अव्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ-'हल्लानामक कीट-विशेष का प्राकार कैसा बताया गया है ?' 98. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स दोच्चं पि अयमेयारूवे अन्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोबएसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पन्ननाण-दंसणधरे जाव सवण्णू सव्वदरिसी इहेब सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुम्भकारोए कुभकारावर्गसि प्राजीवियसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएणं अपाणं भावेमाणे विहरति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलते गोसालं मंखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता, इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं सं० 2 कल्लं जाब जलते हाए कय जाव अप्पमहाघाभरणालंकियसरीरे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, सातो० प० 2 पादविहारचारेणं सात्थि नगरि मझमज्भेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 पासति गोसालं मखलिपुत्तं हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावर्णसि अंबऊणगहत्थगयं जाव अंजलिकम्मं करेमाणं सीयलएणं मट्टिया जाव गायाई परिसिंचमाणं, पासित्ता लज्जिए विलिए विड्डे सणियं सणियं पच्चोसक्कइ / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 721-722, (ख) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2445-2446 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 684 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org