________________ 510] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समय में काल करके ऊार चन्द्र और सूर्य को यावत् प्रानत-प्राणत और प्रारणकल्प का अतिक्रमण करके वह अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई हैं / सुनक्षत्र देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। शेष सभी वर्णन सर्वानुभूति अनगार के समान, यावत्-सभी दुःखों का अन्त करेगा; (यहाँ तक कहना चाहिए / ) विवेचन -प्रस्तुत सूत्र (130) में सुनक्षत्र अनगार को भावी गति-उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् द्वारा दिये गये उत्तर का निरूपण है / गोशालक का भविष्य 131. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते, से णं भंते ! गोसाले मंखलित्ते कालमासे कालं किच्चा कहि गए, कहि उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघातए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिमसूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवताए उववन्ते / तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बाबोसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता। [131 प्र.] भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? [131 उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक, जो श्रमणों का घातक था, यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही काल के समय में काल करके ऊँचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम का क हो गई है। उनमें गोशालक को स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। विवेचन गोशालक अन्तिम समय में सम्यादष्टि होकर अाराधनापूर्वक शुभभावों से कालधर्म को प्राप्त हुआ था, इसलिए गोशालक भी अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुना और भगवान् ने उस की अनन्तर गति और उत्पत्ति प्रस्तुत सूत्र में अच्युतकल्प के देवरूप में बताई है।' गोशालक : देवभव से लेकर मनुष्यभव तक : विमलवाहन राजा के रूप में 132. से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगानो आउक्खएणं जाव कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे विझगिरिपायमूले पुडेसु जणवएसु सतदुवारे नगरे सम्मुतिस्स रन्नो भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति / से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वोतिक्कंताणं जाव सुरूवे दारए पयाहिति, जंरणि च णं से दारए जाहिति, तं रणि च गं सतदुवारे नगरे सम्भंतरवाहिरिए भारग्गसो य कुंभागसो य उमासे य रयणवासे य वासे वासिहिति / तए णं तस्स दारगस अम्मापियरो एक कारसमे दिवसे वोतिक्कते जाव संपत्ते 1. वियाहपण्णत्ति, सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 731-733 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org