________________ 536] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. एवं जाव वेमाणियाणं / [17] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए / विवेचन-अधिकरण, अधिकरणी : स्वरूप एवं प्रकार-हिंसादि पाप-कर्म के कारणभूत एवं दुर्गति के निमित्तभूत पदार्थों को अधिकरण कहते हैं / अधिकरण दो प्रकार के होते हैं आन्तरिक एवं (2) बाह्म। शरीर, इन्द्रियाँ, मन ग्रादि अान्तरिक अधिकरण हैं एवं हल, कुदाल, मूसल आदि शस्त्र और धन-धान्यादि परिग्रहरूप वस्तुएँ बाह्य अधिकरण हैं। ये बाह्य और आन्तरिक अधिकरण जिनके हों, वह 'अधिकरणी' कहलाता है / संसारी जीवों के शरीरादि होने के कारण जीव 'अधिकरणी' कहलाता है, और शरीरादि अधिकरणों से कथंचित अभिन्न होने से जीव अधिकरण भी है / निष्कर्ष यह है कि सशरीरी जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी / अविरति की अपेक्षा से जीव अधिकरण भी है और अधिकरणी भी / जो जीव विरत है, उसके शरीरादि होने पर भो वह अधिकरणी और अधिकरण नहीं है। क्योंकि उन पर उसका ममत्वभाव नहीं हैं। जो जोव अविरत है, उसके ममत्व होने से वह अधिकरणी और अधिकरण कहलाता है।' साधिकरणी-निरधिकरणी : स्वरूप और रहस्य -शरीरादि अधिकरण से सहित जीव साधिकरणी कहलाता है / संसारी जीव के शरीर, इन्द्रियादिरूप प्रान्तरिक अधिकरण तो सदा साथ ही रहते हैं, शस्त्रादि बाह्य अधिकरण निश्चित रूप से सदा साथ में नहीं भी होते हैं, किन्तु स्वस्वामिभाव के कारण अविरति रूप ममत्वभाव साथ में रहता है। इसलिए शस्त्रादि बाह्य अधिकरण की अपेक्षा भी जीव साधिकरणी कहलाता है / संयमो पुरुषों में अविरति का प्रभाव होने से शरीरादि होते हुए भी उनमें साधिकरणता नहीं है / इसलिए निरधिकरणी का प्राशय है ---अधिकरणदूरवर्ती। वह अविरति में नहीं होता, क्योंकि उसमें अधिकरणभूत अविरति से दूरवर्तिता नहीं होती। अथवा अधिकरण कहते हैं-पुत्र एवं मित्रादि को। जो जो पुत्र-मित्रादि सहित हो, वह साधिकरणी है. किसी जीव के पुत्रादि का अभाव होने पर भी तद्विषयक विरति का अभाव होने से उसमें साधिकरणता समझ लेनी चाहिए / 2 / 'प्रात्माधिकरणी' इत्यादि पदों की परिभाषा-कृषि आदि प्रारम्भ में स्वयं प्रवृत्ति करनेवाला आत्माधिकरणी है / दूसरों से कृषि आदि प्रारम्भ कराने वाला अथवा दूसरों को अधिकरण में प्रवृत्त करने वाला पराधिकरणो है / जो स्वयं कृष्यादि प्रारम्भ करता है और दूसरों से भी करवाता है वह तभयाधिकरणी कहलाता है। जो कृषि आदि नहीं करता है, वह भी अविरति को अपेक्षा से प्रात्माधिकरणो या पराधिकरणों अथवा तभयाधिकरणी कहलाता है। प्रात्म-पर-तदुभय-प्रयोगनिर्वतित अधिकरण-हिसादि पापकार्यों में स्वयं प्रवृत्ति करने वाले, मन आदि के व्यापार (प्रयोग) से निर्वतित-निष्पादित अधिकरण-प्रात्मप्रयोगनिर्वतित कहलाता है / दूसरों को हिंसादि पाप-कार्यों में प्रवृत्त कराने से उत्पन्न वचनादि अधिकरण परप्रयोग-निर्वर्तित कहलाता है और आत्मा के द्वारा दूसरों को प्रवृत्ति कराने के द्वारा उत्पन्न हुना अधिकरण 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 699 2. वही अ. वृत्ति, पत्र 699 3. (क) वही, पत्र 699, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org