________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [557 6. देवे णं भंते ! महिड्डीए एवं एतेणं अभिलावेणं गमित्तए 1 / एवं भासित्तए वा 2, विभागरित्तए वा 3, उम्मिसावेत्तए वा निमिसावेत्तए वा 4, आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा 5, ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेइत्तए वा 6, एवं विउन्वित्तए वा 7, एवं परियारेत्तए वा 8? जाव हता, पभू। |6 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव क्या बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके (1) गमन करने, (2) बोलने, या (3) उत्तर देने अथवा (4) आँखें खोलने और बन्द करने, या (5) शरीर के अवयवों को सिकोड़ने और पसारने में, अथवा (6) स्थान, शय्या, (वस (स्वाध्याय भूमि) को भोगने में, तथा (7) विक्रिया (विकुर्वणा) करने अथवा (8) परिचारणा (विषयभोग) करने में समर्थ है ? [6 उ.] हाँ, शक्र ! वह गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है / 7. इमाइं अट उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छति, इमाइं० 2 संभंतियवंदणएणं वंदति, संभंतिय० 2 तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरुहति, 2 जामेव विसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगते / / [7] देवेन्द्र देवराज शक्र ने इन (पूर्वोक्त) उत्क्षिप्त (अविस्तृत-संक्षिप्त) आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे, और फिर भगवान् को उत्सुकतापूर्वक (अथवा सम्भ्रमपूर्वक) वन्दत करके उसी दिव्य यान-विमान पर चढ़ कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। विवेचन-शकेन्द्र द्वारा पाठ प्रश्न पूछने का प्राशय-कोई भी सांसारिक प्राणी बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये विना (कोई भी क्रिया कर नहीं सकता, किन्तु देव तो महद्धिक होता है, इसलिए कदाचित् बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही गमनादि क्रिया कर सकता हो, इस सम्भावना से शकेन्द्र ने ये आठ प्रश्न पूछे थे / ' कठिनशब्दार्थ-आगमित्तए—आने में / वागरित्तए-उत्तर देने में / उम्मिसावेत्तए निमिसावेत्तए--आँखें खोलने और बंद करने में / आउंटावेत्तए पसारेत्तए-अवयव सिकोड़ने और फैलाने में ! ठाणं-पर्यकादि अासन, कायोत्सर्ग या स्थित रहना / सेज्ज- शय्या या वसति (उपाश्रय), निसोहियं--निषद्या-स्वाध्याम भूमि / चेइत्तए-उपभोग करने में। परियारेत्तए-परिचारणा करने में / उक्खित्तपसिणवागरणाई-संक्षिप्त प्रश्नों के उत्तर / संभंतिय-उत्सुकता से अथवा संभ्रमपूर्वक--शीघ्रता से / शकेन्द्र के शीघ्र चले जाने का कारण : महाशुक्रसम्यग्दृष्टिदेव के तेज आदि की असहनशोलता-भगवत्कथन 8. भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, 2 एवं बयासी--अन्नदा णं भंते ! सक्के देविदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति, वंदि० 2 सक्कारेति जाव पज्जुवासति, --...- . . . 1. भगवती. अ. वृत्ति, 707 2. (क) वही, पत्र 707 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2539 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org