________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 2] [543 वक्तव्यता के समान शक्रेन्द्र की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि शकेन्द्र आभियोगिक देवों को नहीं बुलाता / इसकी पैदल (पदाति)-सेना का अधिपति हरिणगमेषी (हरी) देव है, (जो) सुघोषा घंटा (बजाता) है / (शकेन्द्र का) विमाननिर्माता पालक देव है। इसके निकलने का मार्ग उत्तरदिशा है / दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) में रतिकर पर्वत है। शेष सभी वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए। यावत् शकेन्द्र भगवान् के निकट उपस्थित हुया और अपना नाम बतला कर भगवान् की पर्युपासना करने लगा। (श्रमण भगवान् महावीर ने) (शकेन्द्र तथा परिषद् को) धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापिस लौट गई। 9. तए णं से सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति, 2 ता एवं वयासी 8] तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक श्रमण भगवान् महावीर से धर्म श्रवण कर एवं अवधारण करके अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुा / उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार प्रश्न पूछा - 10. कतिविहे गं भंते ! ओग्गहे पन्नत्ते ? सक्का ! पंचविहे ओग्गहे पन्नत्ते, तं जहा--देविदोग्गहे, रायोग्गहे गाहावतियोगहे सागारिओग्गहे साधम्मिओग्गहे। [10 प्र. भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? |10 उ.) हे शक ! अवग्रह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) देवेन्द्रावग्रह, (2) राजावग्रह, (3) गाथापति (गृहपति)-प्रवग्रह, (4) सागारिकावग्रह और (5) सामिकाऽवग्रह ! 11. जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निम्गंथा विहरंति एएसि णं अहं ओग्गहं अणुजाणामीति कटु समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति, दु. 2 जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / [11] (यह सुन कर शकेन्द्र ने भगवान् से निवदन किया-) 'भगवन् ! आजकल जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ विचरण करते हैं, उन्हें मैं अवग्रह की अनुज्ञा देता हूँ।' यों कह कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके शकेन्द्र, उसी दिव्य यान विमान पर चढ़ा और फिर जिस दिशा (जिधर) से आया था, उसी दिशा की ओर (उधर ही) लौट गया। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 8 से 11 तक) में शकेन्द्र द्वारा भगवान् के दर्शन, वन्दननमन, धर्म-श्रवण, अवग्रहविषक-प्रश्नकरण, समाधानप्राप्ति, एवं अवग्रहानुज्ञा-प्रदान का निरूपण किया गया है / अवग्रह : प्रकार और स्वरूप---अव ग्रह का अर्थ है-उस स्थान के स्वामी (मालिक) से जो अवग्रह-स्वीकार किया जाता है। वह क्रमशः पांच प्रकार का होता है / यथा-(१) देवेन्द्रावग्रह-~शकेन्द्र और ईशानेन्द्र इन दोनों का अवग्रह-स्वामित्व क्रमशः दक्षिणलोकार्द्ध और उत्तरलोकार्द्ध में है। अतः उनकी आज्ञा लेना देवेन्द्रावग्रह है / (2) राजाऽवग्रह-भरतादि क्षेत्रों में छह खण्डों पर चक्रवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org