________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 2] [547 दुनिषद्या रूप से तथा-तथा रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। वे पुद्गल पातक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं; वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। हे गौतम! इसीलिए कहा जाता है, यावत् कर्म चेतनकृत होते हैं। 18. एवं नेरतियाण वि। [18] इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म भी चेतन्यकृत होते हैं / 19. एवं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // सोलसमे सए : बीओ उद्देसओ सम्मत्तो // 16.2 // [16] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक के कर्मों के विषय में कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसो प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्मों का कर्ता : चेतन है, अचेतन नहीं प्रस्तुत तीन सूत्रों में स्पष्टतः युक्ति एवं तर्कपूर्वक बता दिया गया है कि सामान्य जीवों के या नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के कर्म चेतन (जीव) के द्वारा स्वकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार जीवों के आहार, शरीर, कलेवर आदि रूप से संचित किये हुए पुद्गल पाहारादि-रूप से परिणत हो जाते हैं वे कर्मपुद्गल जीवों के ही हैं। क्योंकि वे कर्म पुद्गल शीत, उष्ण, दंश-मशक आदि से युक्त स्थान में, दु:खोत्पादक शय्या (वसति या उपाश्रय) में, तथा दुःखकारक निषद्या (स्वाध्याय भूमि) में दुःखोत्पादक रूप से परिणत होते हैं। दुःख जीवों को हो होता है, अजीवों को नहीं / इसलिए यह स्पष्ट है कि दुःख के हेतुभूत कर्म जीवों ने ही संचित किये हैं। वे कम-पुद्गल अातंक (रोग) रूप से संकल्प (भयादि विकल्प) रूप से और मरणान्त (उपघातादि) रूप से अर्थात्-रोगादिजनक असातावेदनीय रूप से परिणत होते हैं और वे वध के हेतुभूत होते हैं। वध जीव का ही होता है। अत: वध के हेतुभूत असातावेदनीय कर्मपुद्गल भी जीवकृत हैं। इस दृष्टि से कहा गया है कि कर्म चेतनकृत होते हैं,' अचैतन्यकृत नहीं होते। कठिन शब्दार्थ-चेयकडा-चेतः कृत-चेतन कृत यानी बद्ध चेतःकृत कम / कजंति--होते हैं। बोदिचिया-बोंदि-अव्यक्तावयव रूप शरीर रूप से संचित / नस्थि अचेयकडा-अचेतनकृत नहीं। // सोलहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 702 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2526 2. भगवत्री. अ. व त्ति पत्र 702 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org