________________ 554] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र “से जहा वा केयि पुरिसे सुक्कं तणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा एवं जहा छट्ठसए (स० 6 उ० 1 सु० 4) तहा अयोकवाले वि जाव महापज्जवसाणा भवंति / से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जावतियं अन्नगिलायए समणे निगंथे कम्मं निज्जरेइ, तं चेव जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति' / " सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ / // सोलसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समतो // 16-4 / / [7 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म नरकों में नैरयिक, एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में नहीं खपा पाता, तथा चतुर्थभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, .... इत्यादि पूर्वकथित वक्तव्य का कथन, यावत्-कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता / (यहाँ तक) कहना चाहिए। [7 उ.] गौतम ! जैसे कोई वृद्ध पुरुष है / वृद्धावस्था के कारण उसका शरीर जर्जरित हो गया है ! चमडी शिथिल होने से सिकुड़ कर सलवटों (झुरियों) से व्याप्त है / दांतों की पंक्ति में बहुत-से दांत, गिर जाने से थोड़े-से (विरल) दांत रह गए हैं, जो गर्मी से व्याकुल है, प्यास से पीड़ित है, जो आतुर (रोगी) भूखा, प्यासा, दुर्बल और क्लान्त (थका हुमा या परेशान) है / वह वृद्ध पुरुष एक बड़ी कोशम्बवृक्ष की सूखी, टेढ़ी मेढ़ी, गांठगठीली, चिकनी, बांकी, निराधार रही हुई गण्डिका (गाँठगठीली जड़) पर एक कुण्ठित (भोथरे) कुल्हाड़े से जोर-जोर से शब्द करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टकडे नहीं कर सकता, इसी प्रकार हे गौतम! नैरयिक जीवों ने अपने पाप कर्म गाढ़ किये हैं, चिकने किये हैं, इत्यादि छठे शतक (उ. 1 सू. 4) के अनुसार यावत्वे महापर्यवसान (मोक्ष रूप फल) वाले नहीं होते। (यहाँ तक कहना चाहिए / ) (इस कारण वे नैरयिक जीव अत्यन्त घोर वेदना वेदते हुए भी महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं होते !) जिस प्रकार कोई पुरुष एहरन पर घन की चोट मारता हुआ, जोर-जोर से शब्द करता हुआ, (एहरन के स्थल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार ने रयिक जीव भी गाढ़ कर्म वाले होते हैं, इसलिए वे यावत् महापर्यवसान वाले नहीं होते / जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण है, बलवान् है, यावत् मेधावी, निपुण और शिल्पकार है, वह एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठिल (गांठ रहित), चिकनाई से रहित, सीधी और आधार पर टिकी गण्डिका पर तीक्षण कुल्हाड़े से प्रहार करे तो जोर-जोर से शब्द किये बिना ही आसानी से उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है। इसी प्रकार हे गौतम !जिन श्रमण निम्रन्थों ने अपने कर्म यथा-स्थल, शिथिल यावत निष्ठित किये हैं.यावत वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं। हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे हुए घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे कोई पुरुष, पानी की बून्द को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के भी यथावादर (स्थूल) कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org