________________ 508] [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र कबूतर पक्षी के वर्ण के समान फल भी कपोत-कृष्माण्ड (कोहला), छोटा कपोत-कपोतक (छोटा कोहला), तद्रूप शरीर-वनस्पतिजीव-देह होने से कपोतकशरीर, अथवा (2) कपोत शरीर की तरह धसरवर्ण की सदृशता होने से कपोतकफल यानी कष्माण्ड फल, अर्थात संस्कृत किये हए कपोत(कूष्माण्डफल)। मज्जारकडएकुक्कुडमसए-दो अर्थ-(१) मार्जार नामक उदरवायु विशेष, उसका उपशमन करने के लिए कृत-संस्कृत-मार्जारकृत, अथवा (2) मार्जार अर्थात्-विरालिका नामक वनस्पतिविशेष उससे कृत-भावित / कुङटमांसक अर्थात्-बिजौरापाक (बीजपूरककटाह)। प्रस्तुत प्रकरण में रेवती गाथा पत्नी के यहाँ से भगवान् ने कोहलापाक न लाने तथा बिजौरापाक लाने का आदेश क्यों दिया ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं कि भगवान् ने केवल ज्ञान से जान लिया कि कोहलापाक रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए बना कर तैयार किया है। इसलिए वह प्रौद्देशिकदोषयुक्त होने से भगवान् ने उसे लाने का निषेध कर दिया, किन्तु जो दूसरा बीजौरापाक था, वह उसके यहाँ स्वाभाविक रूप से अपने घर के लिए बनाया गया था, वह निर्दोष था, अतः वह ग्रहण करने योग्य समझ कर लाने का आदेश दिया था। यही कारण है कि पहले के लिए 'तेहि नो प्र?' और पिछले के लिए 'आहराहि तेणं अट्ठो' शब्दों का प्रयोग किया है।' इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिए पाठक 'रेवती-दान-समालोचना' (स्व. शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी म. द्वारा लिखित) देखें। कठिनशब्दार्थ-अतुरियमचवलमसंभंतं- त्वरा (शीघ्रता), चपलता और सम्भ्रांति (हड़बड़ी) से रहित / पत्तगं मोएति-पात्रक-कटोरदान को खोला या छीके से उतारा / बिलमिव पन्नगभूएणंसूर्प जैसे सीधा बिल में घस जाता है, उसी प्रकार स्वयं (भ. महावीर) ने वह आहार ग्रानन्द न लेते हुए मुख में डाला / किमागमणप्पओयणं आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? रहस्सक डे-गुप्त बात / सव्वं सम्मं णिस्सिरइ-सारा पाक सम्यक् प्रकार से पात्र में डाल दिया। णिबद्ध - बांध लिया / हट्ठ- हृष्ट-व्याधिरहित ! अरोगे-नीरोग-पीडारहित / 129. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वं०२ एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूती नामं अणगारे पतिभदए जाव विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तदेणं तेयेणं भासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उववन्ने ? एवं खल गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूतो नाम अणगारे पतिभद्दए जाव विणीए से णं तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे उड्ढे चंदिमसूरिय जाब बंभ-लंतक-महासुक्के कप्पे वीतीवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ ण अत्थेगतियाणं देवाण अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सवाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नता। से भंते ! सव्वाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिवखएणं नाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / 1. (क) स्यान्मातुलुङ्गः 'कफवातन्ता / -सुथ तसंहिता (ख) भावती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 779 से 793 तक 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र 691, (ख) भग. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2468 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org