________________ पन्द्रहवां शतक] [521 नरकावासों में नैरयिक रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् निकल कर संजीजीवों में उत्पन्न होगा / वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाकर यावत् काल करके असंज्ञीजीवों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्राधात से यावत् काल करके दूसरी बार इसी रत्नप्रभापृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरकावासों में नै रयिकरूप में उत्पन्न होगा। __ वह वहाँ से निकल कर जो ये खेचरजीवों के भेद हैं, जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार वहीं उत्पन्न होता रहेगा। सर्वत्र शस्त्र से मारा जा कर दाह-वेदना से काल के अवसर में काल करके जो ये भजपरिसर्प के भेद हैं, जैसे कि-गोह, नकुल (नेवला) इत्यादि प्रज्ञापना-सूत्र के प्रथम पद के अनुसार (उन सभी में उत्पन्न होगा,) यावत् जाहक आदि चौपाये जीवों में अनेक लाख बार मर कर बार-बार उन्हीं में उत्पन्न होगा। शेष सब खेचरवत् जानना चाहिए, यावत् काल करके जो ये उर:परिसपं के भेद होते हैं, जैसे कि सर्प, अजगर, पाशालिका और महोरग, आदि, इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार इन्हीं में उत्पन्न होगा / यावत् वहाँ से काल करके जो ये चतुष्पद जीवों के भेद हैं, जैसे कि एक खुर बाला, दो खुर वाला गण्डीपद और सनखपद, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा / वहाँ से यावत् काल करके जो ये जल चरजीव-भेद हैं, जैसे कि-मत्स्य, कच्छप यावत् सुसुमार इत्यादि, उनमें लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि-अधिक, पौत्रिक इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र के प्रथमपद के अनुसार यावत् गोमय-कीटों में अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहां से यावत् काल करके जो ये त्रीन्द्रियजीवों के भेद हैं, जैसे किउपचित यावत हस्तिशौण्ड आदि, इनमें अनेक लाख बार मर कर पुनःपुन: उत्पन्न होगा / वहाँ से यावत काल कर के जो ये द्वीन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि - पुलाकृमि यावत् समुद्दलिक्षा इत्यादि, इनमें अनेक लाख बार मर मर कर. पुनः पुन: उन्हीं में उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये वनस्पति के भेद हैं, जैसे कि वृक्ष, गुच्छ यावत् कुहुना इत्यादि; इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर यावत् पुनः पुन: इन्हीं में उत्पन्न होगा। विशेषतया कटुरस वाले वृक्षों और बेलों में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्राघात से बध होगा। फिर वहाँ से यावत काल करके जो ये वायूकायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि--पूर्ववाय, यावत शुद्धवायु इत्यादि इनमें अनेक लाख वार मर कर पुन: पुन: उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से काल करके जो ये तेजस्कायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि-अंगार यावत् सूर्यकान्तमणिनिःसृत अग्नि इत्यादि, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर पुनः पुन: उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये अप्कायिक जीवों के भेद हैं, यथा---प्रोस का पानी, यावत् खाई का पानी इत्यादि; उनमें अनेक लाख बार-विशेषतया खारे पानी तथा खाई के पानी में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्र द्वारा घात होगा। वहाँ से यावत् काल करके जो ये पृथ्वी कायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि---पृथ्वी, शर्करा (कंकड़) यावत् सूर्यकान्तमणि ; उनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा, विशेषतया खर-बादर पृथ्वीकाकाय में उत्पन्न होगा / सर्वत्र शस्त्र से वध होगा। वहाँ से यावत् काल करके राजगृह नगर के बाहर (सामान्य) वेश्यारूप में उत्पन्न होगा। वहाँ शस्त्र से वध होने से यावत् काल करके दूसरी बार राजगृह नगर के भीतर (विशिष्ट) वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org