________________ 524] [আভাসন্সবিহ্বল तत्पश्चात् स्त्री, भार्या, (ब्राह्मणपुत्री), मनुष्य, विराधक होकर असुरकुमार आदि देवों में, तथा आराधक मानव होकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, महाशुक्र, आनत और पारण आदि देवलोकों में क्रमशः मनुष्य होकर उत्पन्न होने को, और अन्त में सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार गोशालक के भावी भवभ्रमण का कथन किया गया है।' विमलवाहन राजा का विभिन्न नरकों में उत्पन्न होने का कारण और कम-इस प्रकरण में असंज्ञी आदि जीवों की रत्नप्रभादि नरकों में उत्पत्ति होने के सम्बन्ध में निम्नोक्त गाथा द्रष्टव्य है -- असणी खलु पढम, दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी। सीहा जति चरस्थि, उरगा पुण पंचमि पुढवि // छट्टि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सतमि पुढवि / / अर्थात्-असंज्ञो जीव प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं। सरीसृप द्वितीय, पक्षी तृतीय, सिंह चतुर्थ, सर्प पंचम, स्त्री षष्ठ और मत्स्य तथा मनुष्य सप्तम नरक तक जाते हैं / ' . खेचर पक्षियों के प्रकार और लक्षण ---- (1) चर्म पक्षी-चर्म की पांखों वाले पक्षी, यथाचमगादड़ आदि। (2) रोम (लोम) पक्षी-रोम को पांखों वाले पक्षो। ये दोनों प्रकार के पक्षो मनुष्य क्षेत्र के भीतर और बाहर होते हैं, जैसे हंस आदि (3) समुदगक पक्षी-जिनकी पांखें हमेशा पेटी की तरह बंद रहती हैं। (4) वितत पक्षी-जिनकी पांखें हमेशा विस्तृत-खुली हुई रहती हों। ये दोनों प्रकार के पक्षी मनुष्यक्षेत्र से बाहर ही होते हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पत्ति : सान्तर या निरन्तर ?—यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चजीवों में अनेक लाख भवों तक पुनः पुनः उत्पन्न होने का जो कथन किया गया है, वह सान्तर समझना चाहिए, निरन्तर नहीं; क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के भव निरन्तर सात या पाठ से अधिक नहीं किये जा सकते हैं / जैसे कि कहा गया है 'चिदिय-तिरिय-नरा सत्तभवा भवागहेण' अर्थात्-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के निरन्तर सात या आठ भव ही ग्रहण किये जा सकते हैं। चारित्राराधना का स्वरूप-चारित्र-पाराधना का स्वरूप एक प्राचार्य ने इस प्रकार बताया है आराहणा य एत्थं चरण-पडिवत्ति-समयो पमिई। आमरणंतमजस्सं संजम-परिपालणं विहिणा // 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) इ. 737 से 741 तक 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 693 3. वही, पत्र 693 4. वहीं, पत्र 693 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org