________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दढप्पतिण्णवत्तव्वता सच्चेव वत्तव्वता निरवसेसा भाणितव्वा जाव केवलवरनाण-दसणे समुपन्जिहिति / [148] वहाँ से बिना अन्तर के च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में, जो ये कुल हैं, जैसे कि-माढ्य यावत् अपराभूत कुल; तथाप्रकार के कुलों में पुरुष (पुत्र) रूप से उत्पन्न होगा। जिस प्रकार प्रौपपातिक सूत्र में दृढप्रतिज्ञ की बक्तव्यता कही गई है, वही समग्र वक्तव्यता, यावत्-उत्तम केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न होगा, (यहाँ तक) कहनी चाहिये / 146. तए णं से दढप्पतिणे केवली अप्पणो तीयद्ध आभोएहिइ, अप्प० आ० 2 समण निग्गथे सद्दावेहिति, सम० स० 2 एवं वदिहिइ--‘एवं खलु अहं अज्जो ! इतो चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! प्रणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरंतं संसारकतारं अणुपरियट्टिए / तं मा णं अज्जो! तुम्भं पि केयि भवतु आयरियपडिणोए, उवज्झायपडिणीए पायरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए, मा णं से वि एवं चेव अणादीयं अपवयग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति जहा णं प्रह' / [149] तदनन्तर (गोशालक का जीव)दृढप्रतिज्ञ केवली अतीत काल को उपयोगपूर्वक देखेंगे / अतीतकाल—निरीक्षण कर वे श्रमण-निर्ग्रन्थों को अपने निकट बुलाएँगे और इस प्रकार कहेंगे-हे पार्यो ! मैं आज से चिरकाल पहले गोशालक नामक मंखलिपुत्र था। मैंने श्रमणों की घात की थी। यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया था / आर्यो ! उसी महापाप-मूलक (पापकर्म बन्ध के फलस्वरूप) मैं अनादि-अनन्त और दीधमार्ग वाले चारगतिरूप संसार-कान्तार (अटवी) में बारबार पर्यटन (परिभ्रमण) करता रहा / इसलिए हे पार्यो ! तुम में से कोई (भूलकर) भी प्राचार्यप्रत्यनीक (प्राचार्य के द्वेषी), उपाध्याय-प्रत्यनीक (उपाध्याय के विरोधी) प्राचार्य और उपाध्याय के अपयश (निन्दा) करने वाले, अवर्णवाद करने वाले और अकीर्ति करने वाले मत होना और जैसे मैंने अनादि-अनन्त यावत् संसार-कान्तार का परिभ्रमण किया, वैसे तुम लोग भी संसाराटवी में परिभ्रमण मत करना / 150. तए गं ते समणा निग्गंथा दढप्पतिण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म भोया तत्था तसिता संसारभविग्गा दढप्पतिण्णं केलि वंदिहिंति नमंसिहिति, वं० 2 तस्स ठाणस्स आलोएहिति निदिहिति जाव पडिवििहति / [150 ] उस समय दृढप्रतिज्ञ केवली से यह बात सुनकर और अवधारण कर वे श्रमणनिर्ग्रन्थ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे, और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढप्रतिज्ञ केवली को वन्दनानमस्कार करेंगे / वन्दना-नमस्कार करके वे (अपने-अपने) उस (पाप-) स्थान की आलोचना और निन्दना करेंगे यावत् तपश्चरण स्वीकार करेंगे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org