________________ 514] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तदनन्तर किसी दिन उस देवसेन राजा के शंखदल (-खण्ड) या शंखतल के समान निर्मल एवं श्वेत चार दांतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न होगा। तब वह देवसेन राजा उस शंखतल (दल) के समान श्वेत एवं निर्मल चार दांत वाले हस्ति रत्न पर आरूढ हो कर शतद्वार नगर के मध्य में होकर बार-बार बाहर जाएगा और आएगा / यह देख कर बहुत-से राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति परस्पर एक दूसरे को बुलाएंगे और फिर इस प्रकार कहेंगे-'देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा के यहाँ शंखदल या शंखतल के समान श्वेत, निर्मल एवं चार दांतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न हुआ है, अतः हे देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमल-वाहन' भी हो।' तत्पश्चात् उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' भी हो जाएगा। तदनन्तर किसी दिन विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्याभाव ( अनार्यत्व) को अपना लेगा / वह कई श्रमणनिग्रंथों के प्रति आक्रोश करेगा, किन्हीं का उपहास करेगा, कतिपय साधुनों को एक दूसरे से पृथक-पृथक कर देगा, कइयों की भर्त्सना करेगा। कई श्रमणों को बांधेगा, कइयों का निरोध (जेल में बंद) करेगा, कई श्रमणों के अंगच्छेदन करेगा, कुछ को मारेगा, कइयों पर उपद्रव करेगा, कतिपय श्रमणों के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन को छिन्नभिन्न कर देगा, नष्ट कर देगा, चीर-फाड़ देगा या अपहरण कर लेगा। कई श्रमणों के आहार-पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश से निर्वासित करेगा। (उसका यह रवैया देख कर) शतद्वार नगर के बहुत-से राजा, ऐश्वर्यशाली यावत् सार्थवाह आदि परस्पर यावत् कहने लगेंगे-देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमणनिर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यपन अपना लिया है, यावत् कितने ही श्रमणों को इसने देश से निर्वासित कर दिया है, इत्यादि / अतः देवानुप्रियो ! यह हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है। यह न विमलवाहन राजा के लिए श्रेयस्कर है और न राज्य, राष्ट्र, बल (संन्य) वाहन, पुर, अन्तःपुर अथवा जनपद (देश) के लिए श्रेयस्कर है कि विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व को अंगीकार करे। अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह उचित है कि हम विमलवाहन राजा को इस विषय में विनयपूर्वक निवेदन करें। इस प्रकार वे सब परस्पर एक दूसरे की बात मानेंगे और इस प्रकार निश्चय करके विमलवाहन राजा के पास पाएँगे। करबद्ध होकर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से बधाई देंगे। फिर इस प्रकार कहेंगे—हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आपने अनार्यत्व अपनाया है; कइयों पर पाप आक्रोश करते हैं, यावत् कई श्रमणों को प्राप देश-निर्वासित करते हैं। अतः हे देवानुप्रिय ! यह आपके लिए श्रेयस्कर नहीं है, न हमारे लिए यह श्रेयस्कर है और न ही यह राज्य, राष्ट्र यावत् जनपद के लिए श्रेयस्कर है कि ग्राप देवानुप्रिय श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व स्वीकार करें। अत: हे देवानुप्रिय ! आप इस प्रकार्य को करने से रुकें, (इस दुराचरण को बन्द करें) / तदनन्तर इस प्रकार जब वे राजेश्वर यावत् सार्थवाह आदि विनयपूर्वक राजा विमलवाहन से विनति करेंगे, तब बह राजा--धर्म (कुछ) नहीं, तप निरर्थक है, इस प्रकार की बुद्धि होते हुए भी मिथ्या-विनय बता कर उनकी इस विनन्ति को मान लेगा। उस शतद्वार नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सुभूमि भाग नाम का उद्यान होगा, जो सब ऋतुओं में फल-पुष्पों से समृद्ध होगा, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org