________________ 498] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विहरिए, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघातए समणमारए समणपडिणीए, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवष्णकारए अकित्तिकारए बहूहि असम्भावुनमावणाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहि घ अपाणं या परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे धुप्पाएमाणे विहरित्ता, सएणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतोसत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरति / ' एवं संपेहेति, एवं सं० 2 आजीविए थेरे सद्दावेद, प्रा० स० 2 उच्चावयसवहसाविए करेति, उच्चा० क० 2 एवं वदासिनो खलु अहं जिणे जिणप्पलाबी जाव पकासेमाणे विहरिए, प्रहं गं गोसाले चेव मलिपुत्त समणघातए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्स / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरति / तं तुन्भे गं देवाणुप्पिया ! ममें कालगयं जाणित्ता वामे पाए सुबेणं बंधह, वामे० बं० 2 तिक्खुत्तो मुहे उठ्ठभह, ति० उ० 2 सावत्थीए नगरीए सिंघाडग० जाव पहेसु प्राकडविर्काड्ड करेमाणा महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वदह-'नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगते, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति / ' महता अणिडिसक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्य नीहरणं करेज्जाह" / एवं वदित्ता कालगए।। [106] इसके पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ / उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुमा-'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन-प्रलापी (जिन कहता हुआ) यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मखलिपुत्र गोशालक श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी), प्राचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवादकर्ता और अपकीर्तिकर्ता हूँ। मैं अत्यधिक असद्भावना-पूर्ण मिथ्यात्वाभिनिवेश से, अपने पापको, दूसरों को तथा स्वपर-उभय को व्युद्ग्राहित करता हुआ, व्युत्पादित (मिथ्यात्व-युक्त) करता हुया विचरा, और फिर अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर, पित्तज्वराक्रान्त तथा दाह से जलता हुआ सात रात्रि के अन्त में छबस्थ अवस्था में ही काल करूगा / वस्तुतः श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं, और जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करते हैं। (गोशालक ने अन्तिम समय में) इस प्रकार सम्प्रेक्षण (स्वयं का पालोचन) किया / फिर उसने आजीविक स्थविरों को (अपने पास) बुलाया, अनेक प्रकार की शपथों से युक्त (सौगध दिला) करके इस प्रकार कहा- 'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, फिर भी जिनप्रलापी तथा जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा / मैं वही मंखलिपुत्र गोशालक एवं श्रमणों का घातक हैं, (इत्यादि वर्णन पूर्ववत्) यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊंगा / श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं, यावत् स्वयं को जिन शब्द से प्रकट करते हुए विहार करते हैं / अतः हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त जान कर मेरे बांए पैर को मूज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुंह में थूकना / तदनन्तर शृंगाटक यावत् राजमार्गों में इधर-उधर घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना- "देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, किन्तु वह जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकाशित करता हुआ विचरा है। यह श्रमणों का घात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org