________________ पन्द्रहवां शतक] [501 [11] तदनन्तर किसी दिन श्रमण भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। 112. तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंदियग्गामे नामं नगरे होत्था। वण्णओ / तस्स गं मेंढियग्गामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसोभागे एत्थ णं सालकोढए' नामं चेतिए होत्था। वण्णो / जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं सालकोट्ठगस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्या, किण्हे किण्होभासे जाव निकुरु बभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए प्रतीव अतीव उसोभेसाणे उसोभेमाणे चिट्ठति / [112] उस काल उस समय मेंढिकग्राम नामक नगर था। (उसका) वर्णन (पूर्ववत्) / उस में ढिकग्राम नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक नामक उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् यावत् (वहाँ एक) पृथ्वी-शिलापट्टक था, (तक) करना चाहिए। उस शाल कोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था। वह श्याम, श्याम प्रभा वाला, यावत महामेघ के समान था, पत्रित, पुष्पित, फलित और हरियाली से अत्यन्त लहलहाता हुआ, वनश्री से अतीव शोभायमान रहता था। 113. तत्थ गं मेंडिग्गामे नगरे रेवती नाम गाहावतिणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया। [113] उस में ढिकग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी। वह प्राढ्य यावत् अपराभूत थी। 114. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुटवाणपुदिन चरमाणे जाव जेणेव मेंढियग्गामे नगरे जेणेव सालकोट्ठए चेतिए जाच परिसा पडिगया। [114] किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी क्रमशः विचरण करते हुए मेंढिकग्राम नामक नगर के बाहर, जहाँ शालकोष्ठक उद्यान था, वहाँ पधारे; यावत् परिषद् वन्दना करके लौट गई। 115. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायके पाउन्भूते उज्जले जाव दुरहियासे / पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतिए यावि विहति / अवि याऽऽई लोहियवच्चाई पिपकरेति / चाउवण्णं च णं वागरेति-'एवं खलु समणे भगधं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइ8 समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतिए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति / [115] उस समय श्रमण भगवान महावीर के शरीर में महापीडाकारी व्याधि उत्पन्न हुई, जो उज्ज्वल (अत्यन्त दाहकारी) यावत् दुरधिसह्य (दुःसह) थी। उसने पित्तज्वर से सारे शरीर को व्याप्त कर लिया था, और (उसके कारण) शरीर में अत्यन्त दाह होने लगी। तथा (इस रोग के प्रभाव से उन्हें रक्त-युक्त दस्तें भी लगने लगीं। भगवान के शरीर की ऐसी स्थिति जान कर चारों वर्ण के लोग इस प्रकार कहने लगे-(सुनते हैं कि) श्रमण भगवान् महावीर मंलिपुत्र गोशालक की 1. पाठान्तर—'साणकोदए' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org