________________ 500 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [110] तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म-प्राप्त हुआ जानकर हालाला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिये / फिर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के ठीक बीचों बीच (जमीन पर) श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया / फिर मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर को मंज की रस्सी से बांधा / तीन बार उसके मुख में थूका / फिर उक्त चित्रित की हुई श्रावस्ती नगरी के शृगाटक यावत् राजमार्गों पर (उसके शव को) इधर-उधर घसीटते हुए मन्द-मन्द स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहने लगे हे देवानुप्रियो ! मंलिपुत्र गोशालक जिन नहीं, किन्तु जिनप्रलापी होकर यावत् विचरा है / यह मखलिपुत्र गोशालक श्रमणघातक है, (जो) यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हुआ है / श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं, जिन प्रलापी हैं यावत् विचरते हैं।' इस प्रकार (औपचारिक रूप से शपथ का पालन करके वे स्थविर गोशालक द्वारा दिलाई गई) शपथ से मुक्त हुए। इसके पश्चात् मंलिपुत्र गोशालक के प्रति (जनता की पूजा-सत्कार (की भावना) को स्थिरीकरण करने के लिए मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर में बंधी मूज की रस्सी खोल दी और हालाहला कुभारिन की दुकान के द्वार भी खोल दिये। फिर मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से नहलाया, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णनानुसार यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार-समुदाय (बड़े ठाठबाठ) के साथ मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (110) में गोशालक के द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक अपनी मरणोत्तरक्रिया करने की दिलाई हुई शपथ का स्थविरों द्वारा कल्पित औपचारिक रूप से पालन किये जाने तथा पूर्वोक्त रूप से ही ऋद्धिसत्कारपूर्वक मरणोत्तरक्रिया किये जाने का वृत्तान्त प्रतिपादित है / कठिन शब्दार्थ-पिहेंति—बंद किये। आलिहंति-चित्रित की ! सुबेण-मूज की रस्सी से / णीयंणीयं सद्देणं-मन्द-मन्द स्वर से / सवहपडिमोक्खणगं-दिलाई हुई शपथ से मुक्ति (छुटकारा) अवगुणति- खोले / ' पूयासक्कार-थिरीकरणट्टयाए : आशय-पूर्व प्राप्त पूजा-सत्कार की स्थिरता के हेतु / विरों का आशय यह था कि यदि हम गोशालक के मृत शरीर की विशिष्ट पूजा-प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तो लोग समझेंगे कि गोशालक न तो 'जिन' हुआ और न ये स्थविर 'जिन' शिष्य है, इस प्रकार पूजासत्कार अस्थिर (ठप्प) हो जाएंगे, इस दृष्टि से पूजा सत्कार को लोकमानस में स्थिर रखने के लिए स्थविरों ने गोशालक के शव की ठाठबाठ से उत्तरक्रिया की / भगवान का मेंढिकग्राम में पदार्पण, वहाँ रोगाकान्त होने से लोकप्रवाद 111. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि सावत्थीओ नगरीमो कोट्टयाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, पडि० 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 685 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा.५ 2461 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 685 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org